ऐ नासमझ इंसान!
ऐ नासमझ इंसान!
ऐ नासमझ इंसान! अपने कोमल मन को
यदि तुम आशंकाओं से ही
घिरे रखोगे, तो इस
विशाल जीवन-समंदर के मझधार में
निस्संदेह स्वयं को फँसता हुआ ही
लाचार-सा पाओगे...
ऐ नासमझ इंसान! तुम क्यों
अपने जीवन को समस्याओं की
उधेड़बुन मेें रखकर
यहाँ-वहाँ की
बेमौसम बरसात-सी
खोखली बातों में
फँसाकर यूँ तकलीफ देते हो...?
आज जो तुम्हारा नहीं है,
कल वो किसी
और का भी नहीं था...
ऐ नासमझ इंसान!
तुम ऐसे दर-ब-दर
अधूरे सपनों की
मरीचिका के पीछे
क्यों मारे-मारे फिरते हो...??
ऐ नासमझ इंसान!
तुम इस दुनिया में अपने साथ
क्या लेकर आए थे, जो तुम
अपनी अंतिम यात्रा के संधिकाल में
अपने साथ पोटली में
भर कर ले जा पाओगे...???
अरे, नासमझ इंसान! तुम्हारा ये
बेशकीमती शरीर भी
तुम्हारी आत्मा के साथ
नहीं जा पाएगा...
तो फिर किस आस पे तुम
इतना स्वार्थी बनकर
अपनी तिजोरियाँ भर भरकर
दौलत जमा करते फिरते हो...???
ऐ नासमझ इंसान! थोड़ी देर
ठहर जाओ और
अपनी अंधी दौड़ को
यहीं आखरी लगाम दो ।