अधूरे अल्फाज़
अधूरे अल्फाज़
ख़ामोश होंठों पर लफ्ज़ क्यों नहीं आते ,
ख़्याल करता है दिल विचार ही नहीं आते ।
पर आंखें तोड़ देती हैं होंठों की चुप्पी,
उन्हें क्यों जज़्बात छिपाने नहीं आते ।
ख़ामोशी भी यूं तो एक सजा ही है,
वरना किसे अपने अल्फाज़ कहने नहीं आते ।
ज़िंदगी का कारवां तो धीरे धीरे बढ़ता है ,
पर कुछ मुकाम हम क्यों छोड़ नहीं पाते ।
जब पुराने ज़ख्म भरने लगते हैं,
फिर क्यों नये ज़ख्म हैं मिल जाते ।
कहानियों में ज्यों सब हकीकत लगता है,
असलियत में वो क्यों ख़्वाब ही रह जाते ।
हर बात के लिए हम यूं क्यों गिला करते हैं ,
खुदा की इजाज़त हो तो पहाड़ भी हैं हिल जाते ।
हर आरज़ू हर ख्वाहिश ही हो जाए पूरी तो,
इस दुनिया में "राही" कहां ईश्वर ही रह पाते ।।