महिला भी इंसान है
महिला भी इंसान है


एक नन्हीं कली उग आई कहीं,
माली ने उसको सहलाया संभाला।
धीरे धीरे होने लगी बड़ी वो खूबसूरत जवां,
हरदम चहकती फुदकती यहां से वहाँ।
पर वो मासूम थी इस सच से अंजान,
कि कोई इंसान हो सकता है अंदर से हैवान।
ज्यों ही समय बदलता गया,
एक ख़ौफ़ सा उसके मन में बढ़ता गया।
लोगों की भी नज़रें अब अचानक बदलने लगीं,
जो कहते थे उसको बेटी,
समझने लगे अब कमसिन कली।
बाहर निकलो तो हर कोई
करना चाहे उसका शिकार,
घर में भी हमदर्दों की शक्ल में
भेड़ियों का बिछा हुआ था जाल।
सोचने लगी वो बेचारी! किस्मत की मारी,
हाय! आख़िर क्यूँ मैं इस दुनिया में आई।
बेचारी वो मासूम कली,
फूल बनने से पहले ही मुरझाई।
किसी ने उसको नज़रों से नोचा,
किसी ने हवस में दबोचा।
किसी ने उसकी अस्मत को लूटा,
किसी ने चीरा उसका बूटा बूटा।
जब इंतेहा हो गयी अत्याचार की,
वो चिल्लाई मदद की उसने पुकार की।
मदद करने वालों ने उसको ही घूरा,
बाँटने लगे अपने ज्ञान को अधूरा ।
क्यूँ निकलती हो घर से बाहर तुम रात में ??
क्यूँ नहीं हैं तुम्हारा भाई या बाप साथ में ??
तुम्हारे तो लगते हैं लक्षण ही ऐसे हैं ??
भेज दिया जिन्होनें वो घरवाले कैसे हैं ??
कहा उसने चिल्ला कर सभी से,
आप सब ये सुन लो सही से।
ना मुझ में खोट कोई ना मेरे घरवालों की कमी,
ये ग़लती है तुम्हारी, सही ग़लत तुम समझते नहीं।
लड़कों को गर तुम शुरू से समझाते यही
स्त्री को हमेशा अपने बराबर समझना,
अपमान उसका कभी करना नहीं।
तब आज ना मेरी ये हालत होती,
मैं भी लड़कों के समान निडर होकर टहलती।
मैं जा रही हूँ इन हैवानों की दुनिया से,
कहना चाहती हूँ आख़िरी बार बस यही...
महिला भी इंसान है...
केवल महिला नहीं..महिला नहीं..महिला नहीं...