बेफिक्र होना चाहती हूं
बेफिक्र होना चाहती हूं
मेरा पीछा करने वाली भीड़ से
अब मैं बचना चाहती हूं ।
खुद के मन से हर खौफ भगाना चाहती हूं ।
दूर कहीं उस एकांत में
जाना चाहती हूं ।
मैं पहाड़ों की खामोशी में
खो जाना चाहती हूं।
जहां कोई न मुझे पहचाने न जाने
ऐसा जहां मैं पाना चाहती हूं ।
दूर तक फैले पेड़ पास दिखता आसमां
जहां कोई न सुने मेरी आवाज़
वहां खुलकर खिलखिलाना चाहती हूं ।
जहां कोई न हो आसपास
वहां मैं मस्त अल्हड़ बनना चाहती हूं ।
बांहे फैला मैं ठंडी हवा की छुअन,
महसूस करना चाहती हूं ।
दूर उन रास्तों पर मीलों चलकर,
थककर चूर होना चाहती हूं ।
सुबह का सूर्योदय शाम का सूर्यास्त
रात का चांद निहारना चाहती हूं ।
सुकून से लेटकर धरती की गोद में
मैं तारों से बतियाना चाहती हूं ।
बच्चों सी निश्चल बेफिक्र होकर
मैं आंखों में ख़्वाब सजाना चाहती हूं।