अब राम न आएंगे
अब राम न आएंगे
जाने कितनी पीढ़ियों पहले,
एक प्रभु राम----
मुनियों की तपस्या में ,
विघ्न डालने वाले,
सीता का हरण करने वाले,
करके दैत्यों का विनाश,
मां की इच्छा रख,
रख चौदह वर्ष का वनवास,
सह अपार दुख--
लौटे थे अयोध्या को,
न था बिजली का युग,
पर प्रेरक राम, जनमानस में,
खुशी छलका गए,
सम्पूर्ण नगर को, दीपों से,
उद्भासित करा गए.
परंपरा सी चल पड़ी, दीपावली की---
अब दीप नहीं बिजली से,
नहा उठता है, देश का,
हर शहर हर गांव--
लोग प्रसन्न हैं, पर क्यों?
कब तक कल्पना में जीएंगे
किस के स्वागत को उत्सुक?
अब कोई राम न आते हैं,
न आएंगे---
पर हम तो दीपावली मनाएंगे,
लाख रावणो से पट गई हो,
देश की इंच-इंच जमीन,
पर राम जन्म नहीं लेते,
अपने अंदर के राम को सुला,
असुरी शक्तियों को,
जगा चुका है, तामसिक वृति का
हो चुका है इंसान,
अंधों की तरह,
खुशी मनाता है,
आतिशबाजी के धुएं और ध्वनि से,
आकाश गुंजाता है---
शायद राक्षसत्व के जीत जाने की,
खुशी मनाता है,
कुछ शेष बचे रामों की, पराजय पर,
कहकहे लगाता है.
पर कुछ नयनों में,
आशा के दीप, बन के मोती,
अब भी---
प्रकाश दिए जाते हैं,
आखिर वर्षों की तपस्या के बाद ही तो,
मुनिगण और राम---
जीत पाते हैं।