अब के सावन में
अब के सावन में
मेघों संग तुम दमके
घिरे पलकों में आ धमके
लौट गयेे बिन बरसे
रातभर हम यूूंही तरसे
ऐसा तो कभी न हुआ
तुम क्यों रूठे
अब के सावन में.....!
ओस बिंदु ज्यों
दूर्वादल में ठिठके
क्षणभर में आ फिर खिसके
तृष्णा आकर मृद होकर सरसे
अंतस्तल में आकांंक्षा हरसे
ऐसे तो कभी न थे
निकले क्यों झूठे
अब के सावन में.......!
दुनिया की भीड़ में
कहीीं खोये से
सर््वस्व समर्पण को तज
रात में सोये से
सृजन से हो विरत
भ्रांतियों को टोहे से
सोंंधी सी गंध से
तृणतृण सोहेे से
ऐसे तो क्षण कभी न बीते
साजन बिन हम रहे रीते
अब के सावन में......!