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VIVEK ROUSHAN

Abstract

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VIVEK ROUSHAN

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जितना समझ आया

जितना समझ आया

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जितना समझ आया उतना लोगों ने समझा मुझ को

किसी ने कहा अपना तो किसी ने समझा पराया मुझ को


पल-दो-पल की मुलाक़ात में हम नहीं खुलते किसी से

कभी साथ बैठना मेरे फिर ध्यान लगाकर पढ़ना मुझ को


मैं अपने ही तरह के एक शख्स की तलाश में था

ढूँढ़ने निकला तो किसी ने दे दिया एक आईना मुझ को


तू खुदा है सबसे कहता फिरता है की मैं तेरा बंदा हुँ

मैं उलझ गया हुँ किसी रोज़ वक़्त दे कर सुलझा मुझ को


यूँ तो मैं चट्टानों से भी टकराने का हौंसला रखता हुँ

पर कभी दर्द दे जाता है एक छोटा सा तिनका मुझ को 


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