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Shishira Pathak

Abstract

4.8  

Shishira Pathak

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कुडमल

कुडमल

1 min
288


गुलाब की कलिकाएं-अप्राप्त यौवनाऐं,

शुक्तिज सी प्ररोहित हो रहीं लाल पंखुड़ियाँ

लाल मणिकाएं,अपनी आभा फैला रहीं हैं,


सुस्त पंखुड़ियाँ मन्द हवा संग मिल,

हल्की लालिमा ले नींद से जाग रही हैं,

सारा दिन पंखुड़ियाँ इठलाती,नवयुवती सी भंगिमा दिखला,

भँवरों संग बलखातीं हैं,सूर्याभा सी चुम्बन लिये,

न जाने किस से नज़रें चूरातीं हैं,


रात भर शशिप्रभा को निहारतीं,

निशा संग तारकों से तारक मिलातीं,

शर्वरी की वेनिसँहार हो, स्त्रीघोष की अभिलाषा में

अर्क की बन जातीं कंठहार,


झटास की बूंदों बीच, पावस में भीज,

दामिनी से रोशनी खींच, निर्झर सी शीतल,

नदियों सी आत्मनिर्भर, हों गीली लटाओं सी नवीन,

शलभों संग मिल किलकिंचित रूप दिखलातीं हैं,


वसंत सी मधुर, वासंती बन, अक्षज सी सुरम्य,

सांझ सी मंजुल हो जातीं हैं, विष्णु सी कमनीयता लिए,

अभिराम सी रमणीय कलियाँ, कंटकों बीच कलित

प्रसूनक त्याग ललित को प्राप्त हो किसलय रूप अपनाती हैं।


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