वारी
वारी
निरंतर बहती रही तू न जाने कब से
अचल पहाड़ों-पर्वत की बेटी की
संज्ञा पाई हिमालय की अचलता को
थाम बनी अविरल तू
आदि संत-ऋषियों न तुझसेे प्रेरणा ली
धर्म ग्रंथो में जा बेटी से माता कहलाई
फिर चट्टानों को काट आगे निकली
आँचल में अपने कितने जीवों को समेटे
बस अविरल बिना थमे चलती रही
पारदर्शी तेरा जल,दुनिया से कुछ भी न छुपाती
आदिदेव की जटा में बंध कर खुद को ही समेट जाती
न जाने कितनी सभ्यताओं को सींच तूने खड़ा किया
पालन कर हम मनुष्यों का कल्याण किया
अनगिनत तूने खेत सींचे
बच्चे तेरे किनारों में सोए आँखे मीचे
उन्हें खिलखिलाता देख तू भी मुस्कुराई
जा अर्णव को तूने अपनी यात्रा व्रितान्त सुनाई
बनी मोक्षदा असंख्यों की,रामायण-महाभारत के वीरों
ने तुझमें अतिंम विश्राम पाया,
तेरे ही तो जल से मानव ने अपना जीवन पाया
कहूँ तुझे गंगा या यमुना,
गोमती या नर्मदा,तू तो है बस नदी,नीरवान तेरा रूप
बना सका न इंसान तेरा प्रतिरूप
आज समय ऐसा आया
मानव ने अनजाने में तुझपर कलंक लगाया,
कर तुझे मलीन,अंत की दहलीज पर इंसान
दौड़ कर आया,बस बच रहा है तेरा जल कुछ ही शेष,
इस से पहले मानव करे तेरे जल का भी
चीर हरन निर्निमेष, कहता हूं माता तू अब तो बदल ले
अब अपना आदिम परिवेश,
जिस दिन आखरी बूंद नदियों की सूख जाएगी,
सच मानों मानवता निमिश्मात्र में घुटनो पर आ जयेगी
,नीर के रूप में बचेंगे अश्रू तुम्हारे ,
ज़रा सोचों उस वक़्त क्या करेंगे हम सारे।
