अभिव्यक्ति
अभिव्यक्ति
झांक रहा था एक दिन आंखों से अपने मन के "मैं" हाँ ! मैं देखना चाह रहा था कि अंदर के घने जंगलों के बाहर कुछ है भी या है कुछ भी नहीं,
मैं जो भागना चाहता था उस दिन उस सोते हुए जानवर से जो न जाने कब से सो रहा था, वह कुछ ऐसा महसूस होता था मानो को एक अजगर मुँह खोले बैठ बस साँसों से मुझे खा रहा हो,
सब सिमटे हुए हैं बस इसी विशाल जंगल के अंदर, समझ बैठे हैं दुनिया जिसे वे, कुछ लोग कमाई को कागज़ से तौलते हैं और शोहरत को कुछ झूठी बढ़ाइयों से
ये जो जंगल है, बड़ा ही खतरनाक है, दो ही जानवर रहते है इसमें जो कि "मैं" और "खुद" हैं कहे जाते।
अजीब सी विडम्बना है, "मैं" खुद को जीने नहीं देता और "खुद" के बिना "मैं" असतित्व ही नहीं, लेकिन दोनों एक दूसरे के दुश्मन हैं।
झांक रहा था कि "खुद" परेशान हो गया क्योंकि "मैं" की थोड़ी ख्वाहिशें पूरी नहीं हो रहीं थीं।
बादल छा गए उस जंगल पर घनघोर वर्षा हुई, इतने में मन आया और बोला "सब ठीक ही जायेगा।" इतना सुन "खुद को नींद आ गई और मेरा "मैं" सो गया।
