इन्द्रियबोध
इन्द्रियबोध
कर्णश्रवन करो! विटपों के मंडप से होती प्रवाहित प्रवात को
द्रुमों की वार्ता पल्लवों से, नीडोद्भवों के संवाद को
दल- पल्लवों के प्रकम्पन से जो ध्वनियाँ बनतीं
शिलीमुखों से उनके अनुवाद को
फुनंग पर जो नव पल्लव करते कलरव
मयूख से हेममय बन उनके गान को।।
देखो ! वर्हि रूप धारण करते पर्ण,
पद्माकर के सहस्त्र नीलाब्ज
श्रवण करो शतसहस्त्र षटपदों का गुंजन;
दूरस्थ तुंगों से अवरोहित शीतल हवा
ज्यों-ज्यों वापिका पर आती है
ह्रद के इंदीवरों से नील रंग ले वह
अभ्र में कबूदी अभ्रक बन भर जाती है।
कर्णश्रवण हेतु अपने चीत्त को टटोलो
कल के कलपुर्जों की ध्वनि को चीर कर
जो शकुन्तों कि पुकार आती है
वह निश्चल ही चेतनतत्व में मिश्री सी मिल जाती है।।
दृष्टिपात करो स्त्रोतस्विनीयों का
कल कल करते उनके अमृत रूपी पय का
आघ्रण करो काननों से आती सुवास का
विविध पत्रकों की गंध से मिश्रित वनों का पवन में वास का।
