अब कौन जनक आए
अब कौन जनक आए
अश्वथामा का ब्रह्माश्त्र
अब नहीं गिरता
उत्तरा के गर्भ पर
अब तो वो गिरता है
हर गर्भस्त उत्तरा पर ही
कहते हैं सीता
अजन्मा थी वैदेही थी
पर वो एक ही थी
अब तो घर घर में
अजन्मा हैं
देह धारण से पहले ही
उसे विदेही बना देते हैं
पुरुष की आकांक्षा में !
पर उसकी भी तो कोई सुने पुकार
पूछती हर एक से यही सवाल
हे पुरुष
तू मुझको बता दे
क्या मैं युग युग तक
यूँ ही अजन्मा रहूंगी
भोगती रहूंगी
पीड़ा और संत्रास
अपने वैदेही होने का
तुम ये तो सोचो
मेरे बिना तुम्हारा अस्तित्व कहाँ है
बनकर बेटी
मैं तेरे घर में आती
पुलकित करती , घर को हर्षाती
नन्ही हथेलियों से मैं
तेरे गालों पे थपकी लगाती
मैं बनती पत्नी तो
तेरा घर महकाती
हर दुःख दर्द में
तेरे साथ मैं चलती
तेरे हर आंसू के बदले
अपने प्राणों की आहुति देती
तुम जाते जो कहीं बाहर
पलक आँगन डगर बुहार
मैं करती तेरा इंतज़ार
नयनों की भाषा में
तुझको सब समझा देती
जब करती मैं सोलह शृंगार
और
तेरी जननी भी , मैं बन जाती
तुझको अपना अमृत पिलाती
तू घुटनों चलता
मेरा आँचल थाम
मैं वारी जाती हर पग पर
तुझको मुन्ना ,राजा बेटा
कहकर पुकारती
तेरा बचपन मैं संवारती
पर
तूने तो मुझको
अजन्मा ही रहने दिया
आने ही नहीं दिया
धरती पर मुझको
अब मैं कैसे तुझे समझाऊँ
मैं बन मांस लोथड़ा
कुल्हड़ में गाड़ी जाती
अब कोई हल नहीं चलता
सूखी बंजर धरा पर
अब कौन जनक आये
वैदेही को देहि बनाने !