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Rajendra Jat

Tragedy

4.5  

Rajendra Jat

Tragedy

आत्मा की शुद्धि

आत्मा की शुद्धि

2 mins
336


आत्मा जो अलग हुई,

माटी हुआ शरीरI 

जीव से निर्जीव हुआ, रुक गई सांसों की डोर I

"अब" कहीं नहीं रही उसके लिए "ठोर"I 


कोई साथ नहीं,

कुछ भी हाथ नहीं I 

छूटे हमसफ़र और हमराही,

वादे -इरादे सब छूटे,

दोस्त -सखा भी तो रूठे,

आज़ लग रहे सब झूठे I 


चार कन्धों ने ढोकर ,

शमशान की राह दिखाई I 

निर्जीव काया को ,

अपनों ने आग लगाई I 


मुर्दों संग "मुर्दा" जल रहा,

मातम में परिजन बिलख रहा I 

शोर इतना कि, कुछ सुनाई नहीं देता,

अभी कोई "उनकी" सुनने वाला भी तो नहीं होता I 


झुण्ड बना बैठे हैं , शोक संतप्त लोग I 

कोई याद कर रहा, 

शरीर जिसका जल रहा I 

कहीं हो रही घ्यान की बातें,

आत्मा की शुद्धि और शरीर की बातें I 

जैसे जैसे हो रहा शरीर भष्म,

ख़त्म होती यादों की रस्म I 


लाश के पूरा जलते ही,

होड़ सी मची I 

अपने शरीर को साफ करने की,

मंदिर जाकर पाक-पवित्र होने की I 

कितनी जल्दी भूल गए,

उस आत्मा को 

जो छोड़कर जा चुकी 

मोह माया के जाल को I 

और भूलते ही हो गई 

हमारी "आत्मा की शुद्धि" I


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