आँकडों की बाढ़ में ...
आँकडों की बाढ़ में ...
आँकडों की बाढ़ में भावनाएँ ....बह गई हैं ...
आज़ादी की गाथाएँ सिर्फ़ किताबों में रह गईं हैं ।
नींव की ईंटों को भुला ..आज कँगूरे बनने की होड़ ।
है ये कैसी आधुनिकता है ये कैसी अजीब सी दौड़ ।
नहीं परवाह कि देश के हित के लिए कुछ कर जाएँ ।
बस एक ही काम की किस तरह से अपनी जेब भर जाएँ ।
भ्रष्टाचार रिश्वतखोरी और कालाबाजारी के काले कारनामे
की गिरफ्त में सारा प्रशासन आ रहा है ....
आम साधरण व्यक्ति के जीवन में मानो अमावस का ....
गहन अंधकार छा रहा है .....
आज़ादी के परवानों के सपनो को भूल ये सारा जमाना !
बस औपचरिकताओं के ढोल पर हो रहा है गाना बजाना !!
काश कि यथार्थ में हम आज़ादी के मूल्य को समझ पाते ।
तो शायद हम आम व्यक्ति को रोटी कपड़ा और घर दे पाते !
नहीं उन्हें भूख के लिए , तन ढकने के लिए और सर छिपाने
के .... अनगिनत डर सताते !