आँगन की तुलसी
आँगन की तुलसी
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मन चरखे पर
ख्वाबों की रुई
कातने बैठी सूत
संवेदना की डोकरी
रूई के रेसों संग
न जाने कब
नयनो में घुल गए
इंद्रधनुषी रंग
और वे मटमैली
रंग छोड़ती पूनियां
हो गई लाल-गुलाबी,
आसमानी कलेजे पर
कतने लगा सतरंगी धागा
ऊग आए
कुछ और रतियाते जंजाल
सपनों का रूप लेकर
रंग रंगीली चुनरिया
पसर गई
अहसास के चेहरे पर
पर सपने तो सपने थे
टूटना ही नियति थी
सच से साक्षात हो
बिखर गए कांच ज्यूँ
शेष रही
वही मटमैली रुई
वही पुनियां
वही सूत
अनंत में तलाशती
वे ही सूनी जड़ प्रायः आँखें
चरखे पर घूमते
मैले हाथ
और वही मटमैला दुपट्टा
आँख की कौर से टपका आँसू
कि अचानक भरोसा
लिपट पड़ा पांवों में
बूढ़ाती उम्र
ठट्ठा कर हँस पड़ी
बाहें फैला कर
समेट लिया विश्वास को।
देखा- आँगन की तुलसी
फिर से मुस्कुरा दी।