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Ravi Purohit

Drama

4.0  

Ravi Purohit

Drama

आँगन की तुलसी

आँगन की तुलसी

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464


मन चरखे पर

ख्वाबों की रुई 

कातने बैठी सूत

संवेदना की डोकरी


रूई के रेसों संग

न जाने कब 

नयनो में घुल गए

इंद्रधनुषी रंग


और वे मटमैली 

रंग छोड़ती पूनियां

हो गई लाल-गुलाबी, 


आसमानी कलेजे पर

कतने लगा सतरंगी धागा

ऊग आए 

कुछ और रतियाते जंजाल


सपनों का रूप लेकर

रंग रंगीली चुनरिया 

पसर गई

अहसास के चेहरे पर


पर सपने तो सपने थे

टूटना ही नियति थी

सच से साक्षात हो

बिखर गए कांच ज्यूँ


शेष रही

वही मटमैली रुई

वही पुनियां 

वही सूत

अनंत में तलाशती

वे ही सूनी जड़ प्रायः आँखें


चरखे पर घूमते

मैले हाथ

और वही मटमैला दुपट्टा

आँख की कौर से टपका आँसू


कि अचानक भरोसा

लिपट पड़ा पांवों में

बूढ़ाती उम्र

ठट्ठा कर हँस पड़ी


बाहें फैला कर

समेट लिया विश्वास को।

देखा- आँगन की तुलसी

फिर से मुस्कुरा दी।


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