Shakuntla Agarwal

Tragedy

4.9  

Shakuntla Agarwal

Tragedy

आम आदमी

आम आदमी

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आम आदमी की किसको फ़िक्र है,

उनका सिर्फ़ क़िताबों में ज़िक्र है,

प्रलोभनों का फंदा ,

उसके गले में डालते हैं,

अपना मतलब निकालते हैं !


चाँदी का सिक्का उछालते हैं,

वह जब झपटता है,

उसी को मारते हैं !


तिजोरियाँ उन्हीं की,

गोदाम उन्हीं के,

आम आदमी का तो,

बस नाम डालते हैं !


आम, आम बना रहे,

ख़ास-ख़ास उसके लिए,

कुछ भी कर डालते हैं !


ख़ास की स्वार्थों की चक्की में,

घुन की तरह पिस रहा आम,

जैसे वो हो उनका गुलाम !


गुलाम का सा जीवन,

वो निकालते हैं !

ज़रूरत पड़ने पर,

सीढ़ी उन्हीं की,

कंधा उन्हीं का !


मतलब निकलते ही,

ठोकर मारते हैं

आम आदमी को,

नींबू की तरह निचोड़ते हैं,

तब जाकर

उसका पीछा छोड़ते हैं !


आम तो है आम ,

बिकता है सरेआम !

चुनावी रैलियों में, रेले में, 

नज़र आएगा आम !


राशन की दुकानों पर,

धक्कें खायेगा आम !

नीले-हरे कार्ड में,

बिकता नज़र आएगा आम !


फुटपाथ पे बेमौत

मारा जाएगा आम !

सही मायने में,

मुसीबतों की भट्टी में तपकर,

कुंदन बन जाता है आम !


जिस दिन इस कुंदन ने,

"शकुन" अपनी

क़ीमत जान ली,

उस दिन से, ख़ास के

बराबर इसकी आन हुई !


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