आखिरी वक्त का मेरा पैग़ाम
आखिरी वक्त का मेरा पैग़ाम
वो खुश है या नहीं, इसका जायज़ा कर लिया
मेरा क्या हाल है, कभी इसका रुख भी किया होता
सौ दफ़ा कहनी चाही मैंने तुमसे वो बातें
काश! तुमने एक बार तो मुझे सुन लिया होता
उसे कोई परेशानी है या नहीं, इसका लिहाज़ कर लिया
कभी ऐसे मेरी मजबूरी को भी अपनाया होता
मेरी चिता जलाने की आस लगाने से पहले
काश! तुमने एक बार तो अपने उसूलों को दफ़नाया होता
नहीं रह सकती अब मैं ऐसे
तुम्हारे झूठे प्यार संग घुटने लगी हूँ मैं
तुम्हारे उसूलों के अंगारों पर चल-चलकर
जले पाँव ले आज झुकने लगी हूँ मैं
सोचा था समझोगे तुम मुझे
अरे, तुमने तो मेरी सुनी ही नहीं
इंकार भरी नजरों से यूँ न देखो हमें
क्योंकि अभी तो हमने कुछ बात कही ही नहीं
अपने लिए जीना हमें भी आता है
पर कभी हमारी तरह दूसरों के लिए जीकर देखा होता
मेरी लाश जलाने को महफ़िल सजाने से पहले
एक आखिरी बार तो मुझे दिल में समेटा होता
तुम्हारी आँखों में तपती गर्मी की नमीं भी न दिखी
जब मैं लिए कन्धों पर बोझ अंगारों पर चल रही थी
तुम्हारी ओर से तो गम भरी तप्त भी न निकली
जब पड़ी बेजान मैं बंज़र ज़मीन में पल रही थी
खड़ी हूँ आज तेरे वास्ते मैं यहाँ
तू आज जश्न का बिगुल बजा कर दिखा तो सही
आज इन अंगारों पर चलने में कोई हर्ज़ नहीं मुझे
तैयार खड़ी हूँ, तू युद्धभूमि में आ तो सही।