आखिर क्यों....?
आखिर क्यों....?


शब्द मौन है
भीतर मचा है शोर
काश कोई समझ पाता
भांप लेता मन की
कही-अनकही
जैसे आप भांप लेते थे...
कोई फिक्र नहीं मैं हूं ना
यही कहा करते थे
आपके ये शब्द हर लेते थे हर पीर
साये की तरह साथ देना आपका
हर अच्छे बुरे वक्त में हाथ थाम लेना
बहुत तन्हा कर गया हमें
यूँ बिन बताऐ चले जाना आपका
यही पीड़ा सालती दिन रात
कही भी नहीं अपनी
सुनी केवल हमारी बात
शब्द मौन है..
भीतर मचा है शोर
घर का चौक स्तब्ध बैठा जोह रहा है बाट
बाल गोपाल, डांगर ढोर खोज रहे चंहु ओर
हर आहट पर केवल आपकी छवि उभरती
हर पल बजते कान मानो पुकारा हो आपने
कैसे मान लें कि आप नहीं हो पास
कैसे मान लें कि यह चौक सूना हो गया
अब कभी ना आओगे आप...
न कभी ढा़ढ़स बंधाओगे
न कभी जोहोगे बाट गली के छोर पर
जैसे हमेशा जोहा करते थे
कौन पूछेगा खैर खबर हमारी
आपने बडी़ जल्दी की तैयारी...
सूना कर गये हर कोना...
घर का, दर का, दिल का, मन का...
एक शून्य है चारों ओर
न कुछ दिखता है, न समझ आता
केवल एक ही प्रश्न है बस
आखिर क्यों... आखिर क्यों...