दूज का चाँद
दूज का चाँद
कल दूज का चाँद बहुत सादा लगा,
आसमां में पूरा था मगर आधा लगा।
इतरा रहा था अपनी ही खूबसूरती पर,
जैसे इतराती हो मानो कोई बाला।
सोचा मैंने पुछूँ क्यों इतराते हो इतना,
तुम्हारी ये नाजुक बलखाती कमर।
ये है दो दिन की मेहमान,
फिर तुम भी मोटी कमर के घेरे में,
टुनटुन हो जाओगे और जिस तरह।
मैं कसमसाती हूँ तुम भी कसमसाओगे,
छोड़ो ये सुंदरता पर इतराना।
मुझे तो तुम टुनटुन ही अच्छे लगते हो,
ये पतली कमर एक सुनहरी रेख।
जब मोटे होते हो तो ज्यादा दमकते हो,
फिर एक बात और बहुत भाती तुम्हारी।
जंहा मैं जाती हूँ वहीं चले आते हो,
यूँ रात भर घूमना तुम्हारा।
कंही बदनाम न कर दे तुम्हें,
ऐसा न हो लोग आवारा कह दे तुम्हें।
लेकिन बदनाम होगे तो क्या नाम न होगा,
फिर मैं ही शिकायत करूंगी क्योंकि,
पखवाड़ा बीतते बीतते ये चाँद न होगा।
फिर न सुहाऐगा मुझे तुम्हारा यूँ गायब हो जाना,
चलो कहती हूँ कि तुम आना जल्द।
फिर चाहे अपनी खूबसूरती पर खूब इतराना,
अपनी खूबसूरती पर खूब इतराना।