मंज़िल
मंज़िल
अपनी नौ वर्षीय बेटी के साथ
स्कूटर पर सवार मैं
चली जा रही थी तेज़
सभी प्राकृतिक दृश्यों को
करती नजरअंदाज
क्योंकि पहले से ही देरी थी
नजर थी सिर्फ मंज़िल पर
दिमाग में ढे़र सारे लम्बित काम
और न जाने क्या क्या
बेटी ने खुशी से मेरी और देखा और कहा
"मां,देखो कितना सुन्दर नजा़रा है"
बिना उसको देखे ,बिना समझे
बोली मैं काहे का नजा़रा
बिटिया बोली, देखो ना बादल कैसे लुका छिपी खेल रहे सूरज के साथ
देखो मां पेड़ो के रंग
कितने नज़ारे मैने पीछे छोडे़
एक पल भी न निहारे ये सोच थी दंग
देखो ना मां ये नीले आसमां के नीचे चरते मवेशी
देखो ना ये उड़ते पंछी
मां क्या इक पल हम रुक सकते हैं
इस हरी भरी घास पर क्या नंगे पैर चल सकते हैं
क्या हम देख सकते पक्षियों के घर"
पर मैं जानती हूं आप फिर कहोगी, नहीं किसी और दिन
मैं जानती हूं आप नहीं समय निकाल पाती एक पल
क्योंकि आपको रोज़ पहुँचना रहता कहीं पर
लेकिन इक वादा करो मां, तुम इक दिन मुझे लाओगी यहां
खेलोगी मेरे संग छुपम छुपाई, उस दिन नहीं भागोगी तुम
चौंक गई मैं सुनकर उस बच्ची की बातें
समझ आ गई भाग दौड़ की सारी गफलतें
समय की इस अंधी दौड़ में
लगा दांव पर बच्चे और जीवन
उस दिन के बाद बेटी के साथ हर यात्रा मेरी
केवल थी मनोरंजन,न थी कोइ आपा धापी
यात्रा में था इक अलग सुकून
न कोइ पास न कोइ दूर
बहुत वर्ष बीत चुके हैं
आज भी हम रुकते हैं तकते हैं
सभी नजारे, छोटे बडे़,प्यारे प्यारे
वो लुका छिपी बादलों की सूरज से
वो नीला आसमां, वो चिडि़यों के घर
वो मखमली घास, चलना उसपर
वो खिलना फूलों का
मंडराना तितलियों का उनपर
और भी बहुत से नज़ारे इस जीवन के
क्योंकि अब बात मंजिल की नहीं
बात है यात्रा की...