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Arpita Sahoo

Tragedy Others

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Arpita Sahoo

Tragedy Others

आखिर क्यों

आखिर क्यों

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थी बचपन की वह गुड़िया सी

नाज़ों में पली कितनों की हँसी

कुछ ऐसा था जिसका बचपन।


नाव-नाव सी धीमी-धीमी

छांव-छांव सी ठंडी-ठंडी

शीतल-शीतल मधुर-मधुर।


हर रूप सुहाना हर धूप सुहानी

हर वृक्ष में जीवन हर ताल में स्वर

हर मेघ में गर्जन हर बूंद में सावन

थिरक-थिरक हर नाच में उमंग।


मां के हाथ का माखन

या बाबा के संग की नादानियां

छोटी के संग उलझी सुलझन हो

या उलझी हुई पतंग

जीवन की थी डोर संग-संग।


मगर बावरे से उस मन को

मनचली सी उन नादानियां को

किसने कुचला ? कैसे दबोचा ?


वह हाथ मानव के तो नहीं

नापाक जिनके इरादे निकले

वह क्षमता मानव में तो नहीं।


जो देवी के इस रूप को ना समझे

वह तन मानव का तो नहीं

जो नारी की अस्मिता को लूट गए।


कंस जयद्रथ शकुनि की भी

दानवता आज शर्मिंदा है

मर्यादा से विचलित चीखों में

लिपटा मानव भी अपने इस

रूप से हैरान है।


क्यों आज

हर स्पर्श में द्वेष है

हर श्वास में कलेश

हर वेश में विष है

हर रूप में मृत्यु है।


अब तो सूरज भी आग है

बरसात भी तेजाब है

अमानवता में झुलस रही

उस मासूम की यह पुकार है।


क्या इतनी लाचार

हो सकती है मानवता

क्या इतनी हावी

हो सकती है वासना।


क्या यही है भारत महान मेरा

जहां अपराधी नहीं

राजनीति का है दोष सारा।


क्यों नहीं कट गए मस्तक उनके

डगमगाए थे चरित्र जिनके

क्यों ना सुन पाए

उस मासूम की चीखें वह।


क्यों ना रोक पाए ईश्वर भी उन्हें

क्यों ? आखिर क्यों ।


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