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यह प्यार था या कुछ और

यह प्यार था या कुछ और

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राज एक अंतमुखी युवा था, स्कूल व काॅलेज के दिनों में हमेषा एकाकी रहने वाला राज के चेहरे पर सदा मुस्कान रहती थी, लेकिन वह ज्यादा मुखर नहीं था। पढ़ाई में हमेषा अव्वल आता था, जाहिर है कि उसकी किताबों से ज्यादा दोस्ती थी। उसके कोई ज्यादा मित्र नहीं थे।और कुछ खास मित्र थे भी, तो वे उंगलियों पर गिने जा सकते थे। काॅलेज से निकलने के बाद ये मित्र भी चार दिशाओं में गुम हो गये। अब राज का एकाकी सफर आरंभ हुआ।

किताबों की दुनिया से वह वाकिफ था, लेकिन प्यार की दुनिया से वह अनभिज्ञ था। प्यार की परिभाषा क्या होती है, वह नहीं जानता था, किन्तु प्यार के जो रूप उसके सामने आये थे, उनमें वात्सल्य (माँ और बच्चें), स्नेह (सभी से), प्रणय (पति-पत्नी) और प्रेम (प्रीतम-प्रियतमा) को वह किताबों में पढ़ चुका था किन्तु जिसे आज के युवाओं की भाषा में प्यार, इश्त, मोहब्बत,आशिकी व लव कहते है उससे वह अनजान था।

अभी उसके जीवन का आरंभ ही हुआ था,सब कुछ अच्छा चल रहा था,दूसरे शब्दों में 

‘‘सितारों ने सजायी थी डगर

बहारों ने झुलाया भी मगर

जला डाले जला डाले पंख नसीबों ने

रह गई हसरतें परवाज’’

उपरोक्त अलफाज उसके बीते दिनों की कहानी कह रहे थे। उसे जिन्दगी के हर पहलू से असीम स्नेह मिला था।एक दिन अचानक उसे ष्षरीर के आधे भाग में लकवा मार गया । अब उसके लिए चलना फिरना दूभर हो गया। वह अपने परिवार पर आश्रित हो गया था। परिवार के लोगों ने उसे ष्षहर से दूर एक चिकित्सालय में भर्ती करवाया। राज का ष्षरीर का हिस्सा काम नहीं कर रहा था। लेकिन उसका दिमाग तो काम कर रहा था। वह अपने जीवन में कुछ करना चाहता था।नाम कमाना चाहता था, लेकिन अपनी इस हालत से वह दुखी हो गया।उसे लगा कि उसके सपनों पर ही तुशारापात हो गया ।

अब वह हाॅस्पीटल की खाली दीवारों को देखता या फिर फिर घूमते हुए पंखों को लेकिन एक दिन हाॅस्पीटल में नर्स की बेटी जो तकरीबन उसके ही उमर की थी,अपनी मम्मी से मिलने आयी, तो पलंग पर लेटे राज पर उसका ध्यान गया। अपनी मम्मी से उसके बारे में जाना तो उसे भी अफसोस हुआ। अब वह रोज किसी न किसी बहाने से हाॅस्पीटल की काॅलोनी के पास में होने के कारण आ जाती, मम्मी की मदद करती , साथ ही राज की भी मदद करने लगी। मम्मी की अनुपस्थिति में वह भी तीमारदारी में हिस्सा लेती।राज के होठों पर इतने दिनों में मुस्कान नहीं थी, लेकिन उस अजनबी के आने से वह मुस्कुराने लगा था। वह जब तक पास होती, राज खुषनुमा रहता। हाॅस्पीटल की दवा से ज्यादा उस अजनबी के सानिध्य से राज का आत्मविष्वास बढ़ गया था।अब वह फिर से उत्साह से नयी सुबह का इंतजार करने लगा। आखिरकार दवा और दुआ दोनों रंग लायी , राज कुछ ही दिनों में भला चंगा हो गया।

उस अजनबी की दोस्ती से राज के मन में जल तरंग बजने लगे थे।एक दिन वह गुनगुनाने लगा अजनबी तुम जाने पहचाने से लगते हो कि बड़ी अजीब सी बात है, कि नई नई मुलाकात है, फिर भी जाने क्यूं...अचानक वह अजनबी उसके सामने आ गई...राज गाते गाते रूक गया।ऐसा लगा कि उस अजनबी की सहानुभूति भी चाहत में बदल गई थी। राज को उसके माध्यम से ही पता चला कि अब बहुत जल्दी ही उसकी हाॅस्पीटल से छुटटी होने वाली है।राज यह सुनकर ज्यादा खुष नहीं हुआ था। यह बात तो उस अजनबी ने भी ताड़ ली थी ,जिस हाॅस्पीटल से राज जल्दी से जल्दी निजात पाना चाहता था, अपनी बीमारी से वह ठीक होना चाहता था। अब उसे इस माहौल से बिछुड़ने का गम सताने लगा था।अंतिम दिन हाॅस्पीटल का पूरा स्टाॅफ मौजूद था। बह अजनबी भी फूल का गुलदस्ता हाथों में लिए वहाॅ उपस्थित थी। उसके चेहरे पर मुस्कान तो थी ,लेकिन आंखों में आंसू थे।

राज ने शहर लौटने के बाद धीरे धीरे लिखना आरंभ कर दिया और उसके डायरी में अनगिनत सुखद पलों को लिखा । आज राज की किताब का विमोचन हो रहा था। राज के जीवन में ना जाने कितने लोगों का आवागमन हुआ लेकिन राज ने सभी के प्रति अपनी किताब में कृतज्ञता ज्ञापित की थी। राज उस अजनबी का शुक्रगुजार था, जिसकी अथक मेहनत से , स्नेह से वह आज इस मकाम पर पहुंचा था।

बीते दिनों की याद करते हुए राज ने लिखा था -तुमसे मिला था प्यार, कुछ अच्छे नसीब से हम उन दिनों अमीर थे जब तुम करीब थे।

लेकिन राज यह भी सोचता था कि यह प्यार था या कुछ और।


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