पराक्रम से परोपकार
पराक्रम से परोपकार
प्राचीन समय की बात है। एक गुरूकुल में गुरू अपने शिष्यों को तलवारबाजी के पैतरें समझा रहे थे। एक शिष्य सभी शिष्यों में सबसे होनहार था। अतः वह तलवारबाजी की विद्या में पारंगत हो गया था। शिक्षा प्राप्ति के उपरांत सभी शिष्यों ने गुरू से विदा ली। कुछ दिनों पश्चात उस शिष्य का तलवारबाजी में चहुं ओर नाम हो गया था। शिष्य को अपनी कीर्ति पर घमंड हो गया। उसने अपने गुरू को तलवारबाजी में चुनौती दे दी। अपने शिष्य के अहंकार को तोड़ने के लिए गुरू ने उसकी चुनौती स्वीकार कर ली।
प्रतियोगिता का दिन निश्चित किया गया। शिष्य गुरू को मात देने के लिए प्रतिदिन अभ्यास करता था एवं अपने गुरू के अभ्यास की जानकारी भी लेता था। जब उसे पता चला कि गुरू एक हाथ की तलवार से अभ्यास कर रहे है तो चेले सवा गुना तलवार से अभ्यास आरंभ कर दिया। चेले को पता चला कि अब गुरू दो हाथ की तलवार से अभ्यास कर रहे है तो चेले ने ढाई गुना तलवार से अपना अभ्यास आरंभ कर दिया। गुरू ने तीन गुना तलवार से अभ्यास आरंभ किया तो चेले ने साढे़ तीन हाथ की तलवार से अभ्यास आरंभ कर दिया। आखिरकार दोनों की चुनौती का दिन आ गया।
बिगुल बजते ही चेले ने अपनी तलवार म्यान से निकाली, लेकिन चेले को अपनी तलवार को संभालने व चलाने में कठिनाई हो रही थी। वहीं गुरू ने लंबी म्यान से एक छोटी तलवार निकालकर अपने चेले को कुछ पैतरे से ही मात दे दी।
चेले ने अपनी हार स्वीकार कर ली वह शर्मिंदा हुआ। उसने आखिर गुरू से क्षमा मांग ली, गुरू ने अपने चेले को क्षमा कर दिया लेकिन एक वचन लिया कि वह अपनी ताकत का प्रयोग दुर्बलों की रक्षा के लिए करेगा।