बुराई का अंत
बुराई का अंत
एक बार एक संत ने एक गांव को अपनी कर्मभूमि बनाया। उन्होंने कुछ दिन रूकने के पश्चात एक दिन अचानक प्रवचन के दौरान एक घोषणा की, कि लोगों के पास जितने खोटे सिक्के हैं उन सिक्कों के बदले वे उनसे नये सिक्के ले जाएं। संत के एक शिष्य ने ऐसा करने का कारण पूछा।संत ने बड़ी विनम्रता से कहा- वत्स मैं सिक्कों के माध्यम से एक बुराई दूर करने की कोशिश कर रहा हूं।
शिष्य ने पूछा- कैसे? संत ने जवाब में कहा- मैं जानता हूं कि लोग जब स्वयं ठगे जाते हैं तो दुखी होते है और दूसरे के ठगे जाने पर आनंदित होते हैं।
शिष्य ने पुनः पूछा- लेकिन गुरूवर सिक्कों से बुराई का क्या संबंध?
संत ने गंभीरता से जवाब दिया- मैं जानता हूं कि अनेक लोगों के पास खोटे सिक्के हैं और ये लोग अपने सिक्के चलाने की खातिर अनेक लोगों को छलने की कोशिश करेंगे।इस तरह लोगों में एक बुराई पैदा होगी।यही लोग किसी मजबूर,लाचार बेबस जरूरतमंद के साथ भी छल कर सकते हैं । अतः यह सिलसिला चलता ही रहेगा,इसलिए मैं यह बुराई को हमेशा के लिए मिटाने हेतु ही यह कार्य कर रहा हूं। शिष्य की जिज्ञासा शांत हो चुकी थी।वह इस नेक कार्य को करने के लिए सुबह का बेसब्री से इंतजार कर रहा था।