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NARINDER SHUKLA

Abstract

5.0  

NARINDER SHUKLA

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कृतज्ञता के आंसू

कृतज्ञता के आंसू

9 mins
518


‘नीना, तुम तैयार हो ? विपिन ने टाई की गांठ को ठीक करते हुये कहा।‘

हां नील, आई एम रैडडी। बालों में कंघी फिराते हुये नीना ने कहा।‘

‘भई, जल्दी करो। मुझे देर हो रही है। पार्टी में सब मेरा इंतज़ार कर रहे होंगे। विपिन ने चलते हुये कहा।‘

‘चल तो रही हूं। क्या मुझे देर नहीं हो रही है। किटटी पार्टी 8 बजे स्टार्ट होनी थी। अब साढ़े आठ हो रहे हैं। मेरसहेलियां कब से राह देख रही होंगी। नीना ने कलाई पर बंधी घड़ी देखते हुये कहा।‘

‘लेकिन नीना, वैभव का क्या करेंगे ? विनिन ने चिंता जाहिर की।‘

‘उसकी कौन सी बड़ी प्राब्लम है। वह तो सो रहा है। और फिर माया तो है ही। देख लेगी। हमें चिंता करने की जरुरत नहीं। तिपाई पर पड़े पर्स को उठाते हुये, वह चल पड़ी।‘

दस - बारह वर्ष का वैभव, बैड पर लेटा,सोने का नाटक कर रहा था। मां के जाते ही वह उठ बैठा - हूं । चले गये, सब के सब। मुझे अकेला छोड़ कर चले गये। कोई मुझे प्यार नहीं करता। सबको अपनी ही चिंता है। जब मुझसे इतनी ही नफरत थी तो मुझे पैदा ही क्यों किया ? मम्मी को किटटी से फुरसत नहीं। और पापा को बिज़नेस पार्टियों से। मेरा क्या। माया संभाल लेगी। कोई नहीं है मेरा। बिल्कल अकेला हूं मै। बिल्कल अकेला। वह रज़ाई में  घुसकर सिसकने लगा।‘ अचानक न जाने उसे क्या सूझा। रजा़ई उघाड़ उठ बैठा वह - ठीक है। कोई मेरी फिक्र् न करे। आज़ बता दूंगा मैं उनको। आज़ से मैं वही काम करुंगा जिससे उन्हें दुख पहुंचे। वैभव मम्मी - पापा के कमरे में चला गया। पापा की फाइलों को नीचे पटक दिया। मम्मी का मेकअप का सारा सामान फर्श पर बिखेर दिया। बैड का कबर्ड देखते हुये उसके हाथ नींद की गोलियों की शीशी लग गई। अब पता चलेगा। वैभव एक साथ पांच - सात गोलियां खा गया। गोलियां खाकर वह वहीं फ़र्श पर लेट गया। धीरे - धीरे उसे नींद आने लगी। आंखें मूंदने से पहले वह आखिरी बार चिल्लाया - आंटी माया, मुझे बचाओ। मैं मरना नहीं चाहता। मौत की इच्छा रखने वाला बड़े से बड़ा शूरवीर भी मौत को नज़दीक आते देखकर एकबारगी कांप उठता है। माया रसोई में, वैभव के लिये दूध गर्म कर रही थी। वैभव के चीखने की आवाज़ सुनकर वह भागती हई बैडरुम में आई। वैभव को फ़र्श पर लेटा देखकर वह चिंतित हो उठी - क्या हुआ मेरे लाल को ? वह वैभव को हिलाने - डुलाने लगी। लेकिन वैभव को होश नहीं आया। माया वैभव का सिर गोद में लेकर अनवरत चूमती जा रही थी - ‘बेटा कुछ तो बोलो। वैभव बोलने की स्थिति में नहीं था। धीरे - धीरे उसके हाथ - पांव ठंडे होते जा रहे थे। चेहरे पर मुर्दानगी छाती जा रही थी। वैभव की हालत देखकर माया ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। उसे कुछ नहीं सूझ रहा था। कहां जाये ? क्या करे ?

उसे याद आया . . पति की असमय मौत के बाद, कैंसर पीड़ित उसके बेटे नीरज़ ने किस तरह से रोते - रोते उसकी गोदी में आखिरी सांसें ली थीं। कुछ सोचकर, वह वैभव को वहीं बैड पर लिटाकर उठ खड़ी हुई और आनन - फानन में अलमारी से कुछ ढ़ूंढ़ने लगी। वह बड़बड़ाती जा रही थी - मैं तुझे कुछ नहीं होले दूंगी मेरे बेटे। भाग्य से उसे वह डायरी मिल गई जिसमें उसके मालिक के फैमिली डाक्टर, मिस्टर भटनाबर का फोन नंबर लिखा था। डाक्टर भटनागर से केवल माया इतना ही कह पाई - डाक्टर साहब, भगवान के लिये, वैभव को बचा लो। मैं इसे मरते नहीं देख सकती। रिसीवर पटकर, वह वापिस वैभव के पास आ गई। वह पागलों सी कभी वैभव के हाथ - पांव मलती। कभी उसका माथा चूमती। कभी उसका सिर गोद में रवकर उसको जगाने का प्रयास करती। डाक्टर भटनागर का घर पास ही था। माया के पास पहुंचने में उन्हें दस मिनट से अधिक समय न लगा। बैडरुम में आते ही उन्होंने पूछा - ‘क्या हुआ माया ? क्या हुआ वैभव को ? ‘ अचानक उनकी नज़र फर्श पर पड़ी नींद की गोलियों पर पड़ी। वे सारा मामला समझ गये। माया से बोले - माया, वैभव की जान खतरे में है। इसे फौरन मेंरे क्लिीनिक ले जाना होगा। माया ने वैभव को गोदी में उठा लिया और डाक्टर साहब के पीछे - पीछे आकर गाड़ी में बैठ गई। घर खुला हुआ था। लेकिन, आज़ उसे किसी की परवाह थी, तो बस वैभव की। वह किसी भी हालत में वैभव को खोना नहीं चाहती थी। घर से सड़क पर आते ही कार ने रफतार पकड़ ली और पलक झपकते ही गाड़ी डाक्टर साहब के क्लिीनिक में थी।

डाक्टर भटनागर ने वैभव को बैड पर लिटाया और नर्स को पानी लाने को कहा। नर्स पानी लाई। डाक्टर साहब ने पतली - पतली नलियों के सहारे वैभव को धीरे - धीरे पानी पिलाया। एक दूसरी नली उन्होंने वैभव की नाक में डाल दी। कुछ ही मिनटों में नली से दुधिया पाने निकलने लगा। जब वैभव के भीतर से गोलियों का ज़हर पूरी तरह से निकल गया तो डाक्टर भटनागर ने माया से कहा - ‘ माया, अब घबराने की जरुरत नहीं है। गोलियों का ज़हर निकल चुका है। दो - चार घंटे में वैभव को होश आ जायेगा। तुम थक गई होंगी। थोडा आराम कर लो।‘ वहीं फ़र्श पर बैठी माया ने कहा - ‘ डाक्टर साहब, मैं आपका यह अहसान सारी ज़िदगी नहीं भूलूंगी।‘ डाक्टर भटनागर ने चश्मा साफ करते हुये  कहा - माया, इसमें अहसान की कोई बात नहीं। यह तो मेरा फर्ज़ है। अच्छा, तुम आराम करो। फिल्हाल मैं चलता हूं। तुम्हारे साहब, मिस्टर अग्रवाल को भी इन्र्फाम करना है। अच्छा सुनो, वैभव को होश आये तो मुझे खबर करना।‘ ‘जी। माया ने सिर हिलाया।‘ डाक्टर साहब दूसरे कमरे में चले गये। माया सारी रात वहीं वैभव के पायताने अपलक बैठी रही। सुबह वैभव ने आंखें खोलीं तो सामने माया को पाकर वह बोला - ‘ आंटी।‘ 

माया वैभव का माथा सहलाते हुए बोली - ‘ हां बेटा। ‘ ‘ आंटी पानी। वैभव के होंठों ने एकाएक हरकत की।‘ माया ने बायें हाथ से सहारा देकर, सामने टेबल पर रखे गिलास से उसे पानी पिलाया। पानी पीकर उसने चारों ओर नज़रें घुमाई। उसकी आंखें मम्मी - पापा को खोज़ रहीं थी। मम्मी - पापा को कमरे के किसी कोने में न पाकर उसने चुपचाप आंखें मूंद लीं। कुछ देर बाद डाक्टर भटनागर ने कमरे में प्रवेश किया - ‘ माया, वैभव अब कैसा है ? उन्होंने कलाई पर बंधी घड़ी देखते हुये कहा - अब तक तो वैभव को होश आ जाना चाहिये था।‘ वे वैभव के बैड की ओर जाने लगे। माया हाथ जोड़ते हुये प्रसन्न भाव से बोली - ‘ आपकी मेहरबानी से वैभव अब बिल्कुल ठीक है डाक्टर साहब। उसने अभी मेरे हाथों से पानी पिया है। वह अभी सो रहा है।‘  डाक्टर भटनागर ने कहा -‘ माया, वैभव अगले चार - पांच घंटों के बाद घर जा सकता है। मैंने मिस्टर अग्रवाल को फोन कर दिया है। वे आते ही होंगे।‘

तभी सामने दरवाज़े से मिसिज़ व मिस्टर अग्रवाल को आते देखकर वे बोले -‘ लो, आप आ ही गये। आइये मिस्टर अग्रवाल। डाक्टर भटनागर ने मिस्टर अग्रवाल से हाथ मिलाते हुये बड़ी गर्मजोशी से उनका स्वागत करते हुये कहा।‘  ‘ कैसा है माई सन, डाक्टर भटनागर। मिस्टर अग्रवाल ने पूछा।‘ ‘क्या हुआ इसे डाक्टर ? वैभव बोल क्यों नहीं रहा। मिसिज अग्रवाल ने वैभव के सिरहाने बैठते हुये पूछा।‘डाक्टर भटनागर ने वैभव कह कलाई पकड़ कर नब्ज़ देखते हुये कहा - ही इज़ एब्सील्यूटिली आल राइट नाव। अब चिंता करने की कोई बात नहीं। ही इज़ फरफैक्टिली ओ के।‘‘ पर इसे हुआ क्या था डाक्टर ? मिसिज अग्रवाल चिंतित हो उठीं।‘

‘कुछ नहीं मिस्टर अग्रवाल, ही इज आल राइट। आप बैठिये न। खड़े क्यों हैं ? डाक्टर भटनागर सामने पड़ी कुर्सी को इशारा करते हुये कहा।‘ मिस्टर अग्रवाल ने सफाई देनी चाही - ‘ एक्चूयली, कल हम दोनों पार्टी में गये हुये थे। रात देर से पहुंचे। थोड़ा इंटाक्स्किेटिंग था। बस नींद आ गई। सुबह आपका फोन आया तो नींद खुली। सीधा भागते हुये यहां आ गया। आखिर बात क्या है ? ‘ डोंट वरी मिस्टर अग्रवाल । वैभव इज़ ओ के नाव। डाक्टर भटनागर ने सांतवना दी।‘ 

‘ वैभव, आर यू ओ के। मिस्टर अग्रवाल ने अपने बेटे के गालों को सहलाते हुये तसल्ली कर लेना ठीक समझा।‘ वैभव ने पापा की किसी बात का जवाब न देते हुये अपना मुंह दूारी ओर कर लिया।‘क्या हुआ मेरे बेटे ? वैभव की हथेली मलते हुये मिसिज अग्रवाल के माथे पर चिुता की लकीरें उभर आईं।‘ वैभव ने हाथ छुड़ा लिया।‘हाय डाक्टर भटनागर, वैभव इस तरह से क्यों बिहेव कर रहा है ? क्सा हुआ इसे ? मिसिज अग्रवाल बेचैन हो उठीं।‘

डाक्टर भटनागर बाल - मनोवैज्ञानिक भी थे। वैभव की मनस्थिति को बड़ी अच्छी तरह से समझ चुके थे। मिस्टर अग्रवाल का हाथ पकड़कर बोले -‘ इधर आइये मिस्टर अग्रवाल। आप भी आइये मिसिज अग्रवाल।‘ डाक्टर भटनागर, मिस्टर अग्रवाल दूसरे कमरे में ले गये और सामने लगे सरेफे की ओर इशारा करते हुये बोले - ‘तशरीफ़ रखिये मिस्टर अग्रवाल। आप भी बैठिये मिसिज अग्रवाल।‘ मिसिज अग्रवाल ने सोफे पर बैठते हुये पूछा - ‘क्या हुआ मेरे बेटे  को डाक्टर साहब ? ‘

डाक्टर भटनागर बड़ी संजी़दगी से बोले - ‘एक्चूयली वैभव इज़ सफरिंग फ्राम डिपरैशन। देखिये, मिसिज अग्रवाल फोन पर मैंने आपको डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा। दरअसल, वैभव ने नींद की गोलियां खा ली थीं। वो तो माया ने मुझे वक्त पर बुला लिया। वरना, कुछ भी हो सकता था।‘

‘ पर, ऐसा वैभव ने क्यों किया डाक्टर साहब। हमने तो वैभव को सारी सहुलतें दी हैं। जो आम तौर पर बच्चों को नहीं मिल पातीं। मिस्टर अग्रवाल ने डाक्टर भटनागर की बात को बीच में ही काटते हुये कहा।‘

मिसिज अग्रवाल कुछ नहीं बोलीं। बस हाथ जोड़ लिये। वे मन ही मन भगवान को धन्यवाद देने लगीं।

‘माफ़ करना मिस्टर अग्रवाल, कहना तो नहीं चाहिये। यह आपका घरेलू मामला है। लेकिन एक डाक्टर होने के नाते कहना चाहता हूं ।

दरअसल आपका बेटा दौलत एंड ऐशोआराम का नहीं, प्यार का भूखा है। उसे आप दोनों का प्यार चाहिये। इस उम्र मे, जब बच्चों को अपने पेरेंटस के प्यार की सबसे अधिक जरुरत होती है। तब आप जैसे लोग समझते हैं कि महंगे खिलौने, कम्प्यूटर एंड टी वी से बच्चों को खुश रखा जा सकता है। लेकिन मैं आपको बता दूं मिस्टर अग्रवाल कि ये चीज़े केवल कुछ समय तक ही बच्चों का दिल बहला सकती है।। लंबे समय तक नहीं। बच्चों को प्यार की जरुरत होती हैं। अपने बच्चे को प्यार दीज़िए। मां - बाप का दुलार ही बच्चों की जड़ों को सींच कर उसे हरा -भरा रखता है। मेरी कोई औलाद नहीं हैं। इसलिये औलाद का अर्थ समझता हूं। यही हाल रहा तो मिस्टर अग्रवामिसिज अग्रवाल फूट- फूट कर रोने लगीं -‘ नहीं डाक्टर साहब। हम ऐसा नहीं होने देंगे। हम वैभव को घुट-घुट कर मरने नहीं देंगे। हम वैभव को इतजा प्यार देंगे कि वह एक मूमेंट के लिये भी अपने आपको अकेला महसूस नहीं करेगा। अपने पति की बाज़ू पकड़कर मिसिज अग्रवाल अपने पति से कहा - हमें माया को भी थैंक्यू कहना चाहिये विपिन। शी इज़ रियली सो गुड हैंड हंबल टू अस।‘

‘यस, वी शुड रीना। समाज़ में अपनी हैसियत व रुतबे के मुकाबले सबको छोटा व तुच्छ समझने वाले मिस्टर अग्रवाल की आंखों में आज़ गरीब माया के लिये सचमुच कृतज्ञता के आंसू थे।‘


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