बंटवारा
बंटवारा
‘ये लो पचास हजार नगद। अब तो खुश हो। बापू की सारी जायदाद का बंटवारा हो गया। राम सहाय ने अपने छोटे भाई राम प्रताप को सौ - सौ रुपये के नोटों के पांच बंडल देते हुये कहा। ‘
‘हां ठीक है। जायदाद का बंटवारा तो ठीक-ठाक से होय गवा। अब तनी इ बताओ भैया कि मैया का क्या करें। राम प्रताप ने चिंतित होते हुये पूछा। ‘
‘अरे छोटे यह तो हमने भी नहीं सोचा। राम सहाय ने कहा। ‘
‘ भैया, आप तो जानत ही ही हैं कि हमरे पास दुवे कोठरी है। छोटे भाई ने अपनी मजबूरी जताई।‘
‘हमारे पास कौन सा आलीशान बंगला है। गिन कर चार कमरे हैं। एक मेरा और तुम्हारी भौजी का। एक बेटे गजेंद्र का। एक बिटिया गीता का। बाकी बचा एक। वह आने - जाने वाले मेहमान के वास्ते रखा है। तुम्हें तो पता ही है कि यहां शहर में हमारी कितनी इज्जत है। रोज़ कोई न कोई मेहमान आया ही रहता है। बड़े भाई रामसहाय ने भी पल्ला झाड़ लिया।‘
‘तो इसमें इतना सोचने की क्या बात है। सासू को कुछ दिन देवर जी अपने घर में रख लें। कुछ दिन हम अपने घर में रख लेंगे। फिर गांव पहुंचा आयेंगे। भई आखिर गांव की कोठरिया की भी देखभाल करने वाला कोई चाहिये कि नहीं। दोनों भाइयों को परेशान देखकर, किवाड़ की आड़ में बातें सुन रही रामसहाय की पत्नी ने कमरे के भीतर आते हुये कहा।‘
‘वाह भौजी, कमाल होइ गवा। का दिमाग पायव है। जोन समस्या का हल हम दो परानी पिछले दस दिन से नाहीं सोच पावा। तुम दुई सैंकिट मा खोज निकालयो। राम प्रताप के चेहरे पर रौनक आ गई।
बंटवारे के फैसले से बेखबर, अपने बच्चों को अपने जीवन की अमूल्य निधि समझने वाली, पिछली कोठरी में गुमसुम बैठी मां के लिये, दस दिन पहले हुई पति की मौत से उबर पाना इतना आसान नहीं था।