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अस्वीकृति का दंश

अस्वीकृति का दंश

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"क्या आपको नहीं लगता कि भूकंप के एक हल्के से झटके में पूरी इमारत के धवस्त हो जाने के पीछे इसके निर्माण में अभियंता और ठेकेदार की मिलिभक्त भी हादसे की एक वजह हो सकती हैं।" घाघ पत्रकार ने बड़ी चालाकी से अपना प्रश्न किया।


हाल ही में बनी उस शानदार इमारत का सौंदर्य देखते ही बनता था। जिसने भी देखा था, उसके निर्माता और शिल्पकार की सराहना किए बिना नहीं रहा था। लेकिन प्रकृति के एक हल्के से झटके ने ही उसे मिट्टी में मिला दिया था। उसी के संदर्भ में पत्रकार की भवन- निर्माता से बात हो रही थी।


"हां संभावना व्यक्त की जा सकती है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसा कुछ है?" भवन निर्माता ने प्रश्न को सहज ही टालना चाहा।


"लेकिन इस प्रोजेक्ट के शुरू में ही कंस्ट्रक्शन-विवाद पर छोड़कर जाने वाले अभियंता मिस्टर कुमार का तो यह कहना है कि वे जानते थे कि देर-सवेर ऐसा होने वाला है।"


" . . . . . .?"


पत्रकार द्वारा 'कुमार' का जिक्र करने पर अनायास ही वे अतीत के उन क्षणों में पहुँच गए जब 'कुमार' ने उनसे अपनी आपत्ति दर्ज करवाई थी। . . .


"सर, नींव की गहराई और उसमें लगे सरिया-पत्थर की क्वालिटी इमारत की प्रस्तावित ऊंचाई और नक्शे के लिहाज से हल्की है। मुझें लगता है आपको इसके तय बजट को बढाना चाहिए।"

"लिसन मिस्टर कुमार, डोंट सजेस्ट मी। तुम्हारा काम सिर्फ 'कंस्ट्रक्शन' करना है। और फिर कौन देखता हैं, नींव के पत्थरों को? बिल्डिंग की पहचान उसके डिजाईन और 'स्ट्रक्चर' से होती हैं। जैसे हम कहते हैं, वैसा करों। वरना इस प्रोजेक्ट के लिए और लोग भी तैयार हैं।". . . . .


".......आप ने जवाब नहीं दिया सर!" पत्रकार के टोकने पर सहज ही वे अपने विचारों से उभर आयें।


"जी ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि उन्होनें ऐसा कहा, लेकिन मेरे विचार से ये सिर्फ एक हादसा है जिसके लिये हम केवल प्रकृति को ही दोषी ठहरा सकते हैं।" उन्होंने बात को फिर संभालना चाहा।


"लेकिन सुनने में तो यह भी आया हैं कि घटिया निर्माण सामग्री के कारण.....।"


"नो कमेंट्स, एंड नो मोर क्वेश्चनस प्लीज!" पत्रकार की बात बीच में ही काटकर, जवाब देते हुए वह उठ खड़े हुए। जिस ग़लती को वह स्वीकार नहीं कर पा रहे थे, उसी घटना का दंश एक बार फिर उन्हें लगा था। प्रोजेक्ट छोडकर जाते हुए 'कुमार' के शब्द टुकड़ा -टुकड़ा उनके सामने लहरा रहे थे।


"....ओ के सर, जा रहा हूँ... लेकिन जाते-जाते इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि नींव के पत्थर नजर भले ही नहीं आते। लेकिन जब समय आता है तो ये अपनी पहचान और परिणाम दोनों ही पीछे छोड़ जातें है।



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