कोशिशें ज़ारी हैं
कोशिशें ज़ारी हैं
"माँ! मन तो हमारा भी नहीं कर रहा, आप लोगों को छोड़ कर जाएँ लेकिन...!" अपनी बात अधुरी ही छोड़ वह माँ के चरणों में झुक गया।
"मैं समझ रही हूँ बेटा, कमी तो हमें भी तुम्हारी बहुत खलेगी। बहू और तनु के बिना तो बहुत सूना लगेगा।"
माँ की नम आँखें और पिता की ख़ामोशी, वह भली-भाँति समझ रहा था लेकिन नौकरी के चलते उसका विदेश जाना मजबूरी बन गया था।
"दादी आप उदास क्यों होती हो, मैं रोज आपको व्हाट्सएप पर वीडियो कॉल करूंगी न और...।" नन्हीं तनु कह रही थी। ". . .और हम जल्दी ही मिलने भी आएंगे, कोई दूर थोड़े ही है लंदन।" पत्नि ने तनु की बात पूरी की।
"हाँ ठीक ही तो कह रही है बहू।" सुबह से चुप्पी साधे पिता पहली बार बोले थे। "इस हाई टेक जमाने में ये मीलों की दूरियां भला क्या मायने रखती है, बस मन के तार जुड़े रहने चाहिए।" अपनी बात कहते हए उन्होंने तनु के हाथ में एक छोटा सा पौधा रख दिया। "लो तनु ये छोटा सा 'गिफ्ट' तुम्हारे लिये!"
"अरे बाबा ऐसे पौधा भी कोई गिफ्ट देता है क्या?"
"हाँ, हम दे रहे है न। ये पौधा तुम नए घर में जा कर लगा देना और जब ये खूब बड़ा हो जाएगा न, तब ये भी तुम्हे हमारी तरह ही ममता की छांव देगा। पता नही; तब हम साथ होंगे भी या नहीं!"
तनु तो बच्ची थी, लेकिन वह सहज ही पिता के मन के भाव को समझ गया। "पिताजी मैं वहां जा कर पूरी कोशिश करता हूँ न, आप लोगों को बुलाने की।"
"बेटा, जीवन इतना सरल नही होता जितना दिखाई देता है।" पिता अनायास ही गंभीर हो गए। "कभी-कभी इन कोशिशों में ही पूरा जीवन गुजर जाता है, पर हम कामयाब नहीं हो पाते। बस रख सको तो हमारे अकेलेपन का अहसास अपने मन में ज़िंदा रखना बेटा।" पिता की आँखों में आई नमी के बीच उनका दर्द भी उभर आया था।
“बरसों पहले गाँव छोड़, शहर आ कर बसने के बाद न तो वे कभी गाँव लौट सके थे और न ही कभी अपने माँ-बाबुजी को शहर में साथ रख सके थे। लेकिन अब बारी मेरी थी एक कोशिश करने की, जिसे मैंने पूरा करना है।” सोचते हुए वह पिता के चरणों में झुक गया।