आँखों के मोती
आँखों के मोती
"माँ आप को अपनी तनु पर विश्वास नहीं?" उसने कह तो दिया लेकिन अपने ही झूठ को जज्ब नहीं कर पा रही थी वह।
बहुराष्ट्रीय कंपनी में साल भर की नौकरी में खुले माहौल ने उसकी मध्यमवर्गीय सोच को कब बदल दिया, वह खुद भी नहीं समझ पायी थी। धूम्रपान और नशे की छोटी-छोटी आदतों को तो झूठ के पर्दे में वह कई बार छिपा चुकी थी लेकिन इस बार 'रेव पार्टी' में रात बाहर गुजारने की योजना के लिए बोले गए झूठ के बाद वह माँ से नजरें नहीं मिला पा रही थी।
"बेटी, विश्वास तो अपने से कहीं अधिक तेरे पर है लेकिन यही विश्वास जब टूटता है न!" अपनी बात कहते हुए माँ की आँखें भर आई थी। "तो अपने पीछे कुछ नहीं छोड़ता, बस पछतावा रह जाता है।"
"मैं सच कह रही हूँ माँ...!" माँ के अविश्वासी रुख़ पर उसकी आँखें भर आयी।
"हां मेरी बेटी जानती हूँ मैं, मेरी तनु सच बोल रही है। बचपन में भी जब मैं तुझे झूठा कहती थी तो तेरी आँखों में 'सच' मोती बनकर झलकने लगता था। बस नहीं पढ़ पायी तो तेरे पिता की आँखें, जो 'लौट आऊंगा!' कहकर गए तो फिर कभी नहीं लौटे।" कहते हुये माँ नम आँखें लिए अपने कमरे की ओर बढ़ गई।
"ट्रिंग...ट्रिंग...” वह माँ को रोक कुछ कहना चाह रही थी कि उसका फ़ोन बज उठा।
". . . हैलो तनु, 'करण दिस साइड'! सब कुछ फाइनल है, तैयार रहना। मैं ‘पिकअप' करने आ जाऊँगा।"
". . . ?"
वह अपनी सोच में गुम थी। "माँ, मेरी आँखों के ये मोती सच्चे नहीं हैं लेकिन मैं इन्हें सच्चा बनाऊँगी। मुझे डैड नहीं बनना माँ!"
"क्या हुआ तनु, चुप क्यों हो?" उसका उत्तर न पाकर दूसरी ओर से आवाज आई।
"नहीं कुछ नहीं!" अनायास ही तनु का स्वर गंभीर हो गया। "करण तुम्हें आने की जरूरत नहीं, मैं नहीं जा सकूँगी। ओ. के. बाय, टेक केअर।" कहते हुए वह फ़ोन बंद कर चुकी थी।