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Virender Veer Mehta

Abstract

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Virender Veer Mehta

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असमंजस के दोराहे

असमंजस के दोराहे

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क्या हम मिल सकते है आज शाम, कहीं बाहर? उत्तर की प्रतीक्षा में तुम्हारा मित्र !"

'शुभ प्रभात' के साथ लिखे शब्द उसके मन को मथने लगे थे।

पिछले कुछ महीनों से जीवन साथी की बेरुखी और बच्चों के शिक्षा के लिए घर से दूर जाने के बाद, जीवन में आये नितांत खालीपन को भरने के लिये उसने 'सोशल साईट' की ओर रुख किया था। वहीं ये 'मित्रता अनुरोध' आया था जिसे उसने सहज ही स्वीकार कर लिया और फिर जल्दी ही उसकी रसभरी भाषा, प्रेम-आतुर वार्तालाप में वह भी दिलचस्पी लेने लगी थी। उसे स्वयं भी पता नहीं लगा कि कब वह 'चैटिंग' के जरिए उसके रंग में रंग गयी थी लेकिन आज इन शब्दों पर वह असमंजस के दोराहे पर आ खड़ी हुयी थी।

"नही यूँ एक अंजान पुरुष के साथ ऐसे मिलना ठीक नही !" आईने में मुस्कराते अपने ही अक़्स को देखकर सकपका गयी वह।

"लेकिन अंजान कहाँ, वह तो तुम्हारा मित्र है न !" दर्पण का अक़्स मुस्कराने लगा था।

"हाँ वह तो है, लेकिन मेरा इस इस तरह घर की सीमाओं से निकल बाहर जाना ठीक नही।"

"लेकिन तुम्हारी भी कुछ जरूरते हैं, जो पूरी नहीं हो पाती। कब तक पति की बेरुखी के साथ जीती रहोगी?" आईना अब मुखर होने लगा था।

"जरूरतें ! . . . लेकिन एक पत्नी के साथ युवा बच्चों की माँ हूँ मैं, मेरे संस्कार मुझे इसकी इजाज़त नही देते।"

"ऑन लाइन हरी बत्तियों के बीच, लिखे शब्दों में जाने कितनी बार अपनी सीमायें लांघने के बाद अब तुम्हे संस्कार की लाल बत्तियां नज़र आ रही है।" आईना खिलखिला उठा। "जाओ अपनी जिंदगी जिओ, तोड़ दो सारी मर्यादा।"

"नहीं !" वह सिहर उठी। "यदि मैं भी वही करूँ जो वे करते है तो क्या फर्क रह जायेगा मुझमें और उनमें !"

"तो जियो वही घुटन भरी जिंदगी।" आईना अट्टाहस कर उठा।

आईने के अट्ठहास ने सहज ही उसके मन के आक्रोश को तपा दिया और कुछ ही क्षण में वह अपने आक्रोश से मुक्त हो, असंमजस के दोराहे से लौट रही थी। और. . . 'मैं सफ़ल हो गया।' की प्रतिध्वनि के साथ ज़मीन पर कई टुकड़ों में बिखरा आईना मुस्करा रहा था।


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