जायज़ -नाजायज़
जायज़ -नाजायज़
सूर्यदेव आज प्रचंड रूप में थे, पारा पैंतालीस पार था। घंटों से खाली खड़े भीमा ने साथी रिक्शे वाले सरजू के सामने अपनी ‘बात' रखी, कि जब भी कोई सवारी आएगी तो वे उससे डबल किराया मांगेंगे, चाहे वह किसी के रिक्शे पर जाए। उसकी बात सरजू को जायज़ नहीं लगी पर बेकार का बिगाड़ न हो, इसलिए उसने हाँ कह दिया। और जब एक सवारी आई।
“ज्वाला मिल चलने के कितने लोगे?”
“साठ रुपये साहब!” भीमा ने झट अपना रिक्शा आगे कर दिया।
“इतने पैसे!”
“साहब सूरज का कहर देख रहे हो, पसीने का जायज़ पैसा मांग रहा हूँ।’’ भीमा ने अपना जाल फेंका।
“चालीस दूंगा।”
‘‘नहीं, साठ से कम नहीं।"
"और रिक्शे नहीं है, इसलिए भाव खा रहे हो।" कहते हुए सवारी ने सरजू की ओर देखा “तुम चलोगे?’’
एक क्षण को सरजू आगे बढ़ा, लेकिन भीमा की ओर देखकर संभल गया। ‘‘बाबूजी, आप समझदार हैं, एक-आध कम दे दीजिए लेकिन चालीस बहुत कम है।"
"अच्छा! दोनों मिले हुए हो, आखिरी बार पूछता हूं, चलेगा कि नहीं?’’
"साहब पैसे तो इतने ही लगेगें। चलना है तो ठीक, नहीं तो पैदल चले जाओ। भीमा ने तंज कस दिया।
"तमीज से बात करो, तुम छोटे लोगों से मुंह लगाना ही बेकार है।" कहते हुए वह सरजू के रिक्शे पर बैठ गया। "चलो, रास्ता पता है न।"
‘‘हाँ साहब...।" कहते हुए सरजू ने रिक्शे के पैडल पर पैर रखा और एक नज़र भीमा की ओर देखा, मानो कह रहा हो, जैसा तय हुआ वैसा कर रहा हूँ। भीमा ने उसे रोकना चाहा लेकिन वह रुका नहीं।
"बात पैसे की नहीं, बात है जायज़-नाजायज़ की। लेकिन तुम छोटी जात, छोटे पेशे वालों को कौन समझाए?" रिक्शे पर बैठी सवारी कटाक्ष कर रही थी लेकिन सरजू कोई उत्तर दिए बिना मंजिल की ओर बढ़ रहा था। उसे अब तपती गर्मी का अहसास भी नहीं हो रहा था। रिक्शे के पहिए की गति के साथ वह बहुत कुछ सोच रहा था, बच्चों के लिए खाने का जुगाड़, भीमा का चालाकी भरा व्यवहार और... और सवारी के कटाक्ष!
"ये लो साठ रुपये" सवारी ने रिक्शे से उतरते हुए बीस-बीस के तीन नोट सरजू के हाथ में रख दिए।
"साहब, जात और पेशा कभी बुरे नहीं होते। बुरा होता है आदमी और उसकी संगत।" पसीना पोंछते सरजू ने एक बीस का नोट वापस साहब के हाथ में रख दिया और मुस्कुराने लगा।