पहला और आख़िरी ख़त
पहला और आख़िरी ख़त
पूज्य बाबू जी,सादर चरण स्पर्श. . .
मैं नहीं जानता कि आप मेरा ये प्रणाम स्वीकार भी करेंगे या नहीं, पर हमेशा सुनता आया हूँ कि संतान कैसी भी हो, माता-पिता उनकी ग़लतियों को क्षमा कर देते हैं। मैं जानता हूँ कि मेरे इस पत्र को, जो पहला होने के साथ शायद आख़िरी भी है; पढ़ने के बाद आप एक बार मुस्कराएँगे अवश्य कि आख़िर मुझे आज आपकी याद आ ही गई। . . . पर जाने क्यों, आज बरसों बाद आप से बात करने का बहुत दिल कर रहा है। मन कह रहा है, जो मैं किसी से नहीं कह पाया, आज वह सब आप से कह दूं। बचपन की दहलीज़ से जवानी के बीच यदि कोई मेरा आदर्श था, तो वह आप ही थे। ये आपकी ही छत्र-छाया थी, ये आपका ही आशीर्वाद था कि मैंने शिक्षा के हर पायदान पर सफलता का स्वाद चखा। शिक्षा के बाद भी जिस क्षेत्र में हाथ डाला, सफल होता गया। होता भी कैसे नहीं, आख़िर बच्चों की सफलता में माता-पिता का आशीर्वाद ही तो सर्वोपरि होता है।
. . . लेकिन जाने क्यों इस सफलताओं ने जितना कुछ मुझे दिया, उससे कहीं अधिक मुझसे छीनना प्रारंभ कर दिया था, और इन सफलताओं ने जो कुछ मुझसे छीना, उसका आकलन मैं चाहते हुए भी अपने जीवन में कभी नहीं लगा पाया। और जब आकलन करने की स्थिति में पहुंचा तो महसूस हुआ, सब कुछ समाप्त हो चुका था।उन सफलताओं के दौर में, आप मुझसे अक्सर मिलना चाहते थे, मेरे पास बैठकर बातें करना चाहते थे। कुछ मेरी सुनना चाहते थे और कुछ अपनी आपबीती सुनाना चाहते थे, मेरे सुख-दुख के भागी बनना चाहते थे। लेकिन पता नहीं, ये मेरी सफलताओं की व्यस्तता थी, मेरी धनवान बनने की लालसा थी या मेरे जीवन में आए कुछ नए अपनों की आसक्ति थी। बहरहाल ये सारी स्थितियां मिलकर मुझे आसक्ति के एक ऐसे मोड़ पर ले आई थी कि मैं अपने जन्म देने वाले माता-पिता से ही दूर होता चला गया।
. . . मैं चाह कर भी अपने परमात्मा स्वरूप माँ बाप के लिए समय नहीं निकाल पाता था। आप लोगों की छोटी-मोटी जरूरतों पर ध्यान देना तो दूर, बीमारी की अवस्था में भी मैं बस औपचारिकता निभा वापिस अपने कमरे में लौट जाता था। आप लोगों के लिए समय देना तो जैसे मेरे लिए सबसे व्यर्थ बातों में शामिल हो गया था। शायद सुविधाओं के सामान के साथ डॉक्टर और दवाइयों को सहज उपलब्ध करवाने को ही मैं अपने कर्तव्य की पराकाष्ठा समझ बैठा था।और सच तो ये है बाबूजी, समय तो मैं उस दिन भी आप को नहीं दे पाया था, जिस दिन माँ आपको, हमें, सबको छोड़कर चली गई थी। मैं अपनी बिजनेस मीटिंग से निकल कर जब घर पहुंचा, माँ की मृत देह अपने पुत्र की प्रतीक्षा कर रही थी। माँ को जाते-जाते भी अपने बेटे को एक नज़र भर देखने की आस थी और बेटा अपना ये कर्तव्य डॉक्टर्स और नर्स को देकर अपने बिजनेस टारगेट को समर्पित था। हाँ बाबूजी, उस दिन जब मुझे माँ के पास होना चाहिए था, आप को मेरे सहारे की जरूरत थी। और मैं अपनी उच्च आकांक्षाओं के भँवर में डूबा हुआ था।
. . . और इतना होने पर भी मैं अपने जीवन की इन विसंगतियों को समझ लेता तो शायद आज मुझे आपसे ये सब कहने की ज़रूरत नहीं पड़ती। माँ का जाना भी मुझे सद्बुद्धि नहीं दे पाया। उनके जाने के बाद भी मैं आपका दुःख, दर्द, अकेलापन नहीं देख पाया था। समाज में अपने मान-सम्मान का डंका बजाने वाला मैं जब ख़ुद ही सच को स्वीकार नहीं कर पा रहा था तो ज़माने को क्या सच बताता? आख़िर मेरी आप से दिन ब दिन बढ़ती दूरियां, आपको घर के बड़े कमरों से छोटे कमरों में ले गई। और अंततः उस छोटे कमरे से भी स्टोर रूम की यात्रा तय करते हुए, अकेलेपन और बेरूख़ी की घुटन के बीच जब एक दिन आप किसी वृद्धाश्रम में चले गए; तब भी मैं किसी को सच नहीं बता पाया और 'मुक्ति मिली' के शब्दों के साथ ही इस सच को भी संसार से छिपा गया. . . !
. . . मैं जानता हूँ बाबूजी, इन बातों का अब कोई अर्थ नहीं रह जाता। लेकिन ये बातें अब मेरे लिए बहुत अहमियत रखती हैं। बहुत जरूरी है मेरे लिए, इन बातों को इस कागज़ पर उतरना, क्योंकि आज ही मैं समझा हूँ। सच छिपा लेने से वह सच छिप नहीं जाता, बल्कि वह तो जीवन के किसी मोड़ पर और अधिक प्रखर होकर हमारे सामने आ खड़ा हो जाता है। बहुत पहले एक बार आपने किसी महान शख्सियत की एक बात कही थी, "यदि आपके पास खुद को सच बताने की हिम्मत नहीं है, तो निश्चित रूप से आप अपने बारे में दूसरे किसी को भी सच नहीं बता सकते।"आज यह बात मेरे सामने प्रत्यक्ष में जीवंत होकर खड़ी है, जिसे मैं चाहकर भी किसी को नहीं बता पा रहा हूँ।आख़िर कैसे बताऊँ मैं किसी को,कि अपने ही जन्मदाता को दुःखद एकाकी जीवन तक पहुंचाने वाला मैं, आज स्वयं उन्हीं परिस्थितियों के बीच उसी मोड़ पर आ पहुंचा हूँ जहाँ कभी आप पहुंच गए थे...!
आपका अवज्ञाकारी बेटा !
कक्ष संख्या 13, मानव मंदिर वृद्धाश्रम।
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