'विरहिणी'
'विरहिणी'
मोम सा तन दीप सी मैं
जलती बुझती विरहिणी
यादों के दरिचों में छुपे
विरह के रंगीन क्षण में
खोजती कुछ शिथिल पल
वेदना में गल चुके जो
अश्रु जल स्मृति लघु कण मेरे
व्याकुल मन की धरा पड़ी
मैं बो लूँ
क्रंदन के कुछ स्निग्ध चरण
दिन रथ बीते व्याकुल से
सूने गलियारों से बहते चले
रात कण काटे कटे ना
चुभते शूल हर करवट पर
उर पिंजर विहंग पड़ा सुस्त
तेरे पदचाप अवलंबित खड़ा
नैन नीड़ समेट पाती
हर तुम्हारी चेतना
सूखे सुमन से स्वप्न मेरे
बाँझ बन ना घुमते
जितनी करुण ये रात बीती
बीते न उम्र दराज़ ये
सुबह उतनी मधुर बीते
जितनी मदीर तेरी साँस है
हृदय साँस लूटा ना दे कहीं
पथ निहारे नैंन पड़े
आहटहीन रस्ते खड़े
तू पाथेय बनकर बरस जा
ये प्यासे मरु बन खो चले
रात के दृग को चीरकर
कोई प्रेम कणीय रस भरे
उस उज्वल एक एक पल में मेरी
सुंदर सौ सदियाँ कटे