ग़ज़ल
ग़ज़ल
रात भर हम
उलझनों से उलझते रहे
साथ मेरे चिराग़ भी
रात भर जलते रहे
आँखों ही आँखों में
रात कट गई
नींद हमें ना आई
कभी इस तरफ
कभी उस तरफ
करवटें बदलते रहे
खुद से सवाल करके
खुद जवाब ढूँढते हम
किसी उलझन से उलझते
किसी से निकलते रहे
रिश्तों को क़ायम
रखने के लिये सदा
जब लोग ना बदलते
हम खुद को बदलते रहे
ज़िन्दगी तमाम हुई
पर ख्वाहिशों का दौर
चलता रहा
कुछ अरमाँ तो पूरे हुए
कुछ दिल में मचलते रहे...।