फातिहा
फातिहा
और फिर यूँ हुआ एक दिन
कि मैंने तुम्हारी याद के
जाड़ो में काँपते हुए
पहन ली तुम्हारी दी हुई
वो तुम्हारी पसंदीदा कमीज़
ठीक वैसे ही पहनी
जैसे तुम कहती थी
अधचढी बाहें, और
पतलून में खसोटा हुआ
आखिरी हिस्सा
मेरी गर्दन के पास का पहला
और दूजा बटन भी खुला
तुम्हें पसंद था न
जब अटकती थी इनमें
मेरी वो रुद्राक्ष की माला
सुनो ! फिर भी
तुम्हारी याद के पोखर में
डुबकियाँ लेकर
मेरे माजी की अस्थियों को
सुकूंं न मिला
जैसे प्यास बुझाने को
पानी ही ज़रूरी है
भूख मिटाने को फकत
रोटियाँ ही काम आती हैं
ठीक वैसे ही मुझे
बस तू चाहिए
तेरी यादगारों से
अब चैन नहीं मिलता
और मेरे इश्क की कब्र भी
तेरी सांसों से
फातिहा सुनने को उतावली है...!