इश्क का मंज़र
इश्क का मंज़र
इश्क का मंज़र कुछ यूँ पसरा हुआ है आजकल
हँसना और रोना दोनों एक साथ करने लगी हूँ आजकल
अपने ही गिरेबाँ से अक्सर उलझ जाती हूँ आजकल
अपने ही आशियाने में कैद हो जाती हूँ आजकल
जंजीर नहीं है बंधी फिर भी बंधी हुई महसूस करती हूँ आजकल
दर्द भरे चेहरे को कुछ इस तरह पर्दा कर रखा है आजकल
जैसे गुलाब और काँटे को माली ने साथ रखा है
अब ये ना पुछ कौन केयो कैसे इस तरह मुझे रखा है
जैसे रूह को रूह से ही फना होने की चाहत हो वैसे ही रखा है
अब ये सुना जरूर है आस्तीन के साँप होते हैं
एक वो जो अनमोल मणि देता है और एक वो जो ज़हर देता है।

