सपनों का बोझ
सपनों का बोझ
एक वक़्त था जब सुनते थे, अब सपने देखना बंद करो,
अब कहा जाता है सपने, नहीं देखोगे तो पूरे कैसे होंगे।
हर इंसान को सपने देखने का, जन्म सिद्ध अधिकार है,
सपने साकार होंगे या नहीं, ये नियति का अधिकार है।
किसी को बहुत कुछ और, किसी को सिर्फ नाम मिला
मुझे तो वृद्ध सपनों का बोझ, विरासत में इनाम मिला।
किसे मालूम था यही विरासत, मुझे इतनी रास आयेगी,
सपनों का बोझ, मेरी ज़िन्दगी का, मक्सद बन जायेगी।
मैं भी सपने देखने में, दिन या रात कंजूसी नहीं करता
लोग पागल ना समझ लें, इस डर से पीछे नहीं हटता।
पर ऐसे सपने नहीं संजोता, जो चेहरे पर झुर्रियां लाये
सपने सिर्फ वही सहेजता हूँ, जो आँखों में चमक लायें।
वृद्ध सपनों से लगाव देख, जवां सपने भी जुड़ने लगे हैं
साकार होने की चाह में, मेरे साथ दोस्ती करने लगे हैं।
एक नयी पहचान की राह में, मेरी नींद उड़ाके रखते हैं
सपने मेरे होंसलों में हर दिन, एक नयी ताक़त भरते हैं।
शुक्र है गोविन्द का वक़्त, की कभी भी छुट्टी नहीं होती
और इंसानी सपनों की, कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती।
‘योगी’ प्रत्येक सपने का, तहे दिल से स्वागत करता हूँ
साकार हों या नहीं, उम्मीद का दामन थामे रखता हूँ।