ज़िन्दगी से गुफ़्तगू
ज़िन्दगी से गुफ़्तगू
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आप किसी से पूछें कि ज़िंदगी क्या है ?तो वो ये कह सकता है कि वही जो मौत नहीं है ,या जो मौत आने तक रहती है या वो जो अपनी पूर्णता में मृत्यु बन जाती है।ये सब महज़ कहने के तरीक़े हैं , सच एक ही है कि दोनों में कोई बुनियादी फ़र्क़ नहीं है।
हमारे शब्द भी बहुत बार बेमानी, ऊलजलूल विचारों की श्रृंखला हो जाते हैं , जब उनसे हमारी रूह न जुड़ी हो।इनसे लाख गुना अच्छे तो मकड़ी के जाले हैं कम से कम वो उसकी भूख मिटाने के काम तो आते हैं ,पर बेमानी शब्द , लच्छेदार अलंकार और रंगीन भाषा , बेढंगे पैबंद की तरह समय के साथ धब्बों की शक्ल में बाक़ी रह जाते है , एहसासों से खाली ,दीमक की बाम्बी की तरह।
उसूल की तरह भागमभाग जैसे एक एवरेज इंसान बनने की रस्म ही चल पड़ी हो।दुनिया जैसे एक ज़ेरॉक्स मशीन हो जिसमें फोटोकॉपी ही फोटोकॉपी निकल रही हो। खैर हम कबीर तो बन नहीं सकते पर अपने समय को देखते हुए वो याद बार -बार आते हैं।
“चलती चाकी देख कर दिया कबीरा रोय,
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।”
और दिन-रात मज़ाल है कि रुकें, अपनी धुन में चले जा रहे हैं ।लगता है घड़ी की सुईयों के बीच हाथ रख दें, पर फिर कमबख्त दिमाग? वो बता देता है ,भई समय ऐसे नहीं रुकने वाला।
इतनी मग़ज़मारी के बाद समझ आता है कि सारी फसाद की जड़ ये चलता हुआ समय है ,जिसमें नापी जाती है सांसों की खुराक!फिर उपाय क्या ?कहते हैं कोई ऐसा तरीका भी है जहां समय के बीच आना जाना हो सके। पर ये या तो योगियों से सुना या तो टेस्ला जैसे वैज्ञानिकों से। पर भई ! जो एवरेज इंसान है उसकेे लिए? उसके लिए नहीं है जी, ये सब ! तो फिर उसके लिये ? तो उसके लिये है -टिक टिक वाली घड़ी,माचिस की डिब्बियों जैसे एयर कंडीशंड डब्बे और ट्रेंडिंग फैशन , चलताऊ अपराध , राजनीतिक घटनाक्रम ,लज़ीज़ व्यंजन और बस्स! ज़िन्दगी यही है , और हम दिल को फिर फुसला लेते हैं ।
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल बहलाने के लिए ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।