ज़िन्दगी से गुफ्तगू
ज़िन्दगी से गुफ्तगू


ओ भई ! आज तो अप्रैल के 22 दिन गुज़र गए और पता भी नहीं चला कब? खैर इससे ये तो ज़रूर पता चला कि जिस ऐंठ के साथ हमने मसरूफ़ियत को सर पर चढ़ा रखा था उसकी कोई खास वज़ह न थी, और ज़िन्दगी सहूलियतों से ही पुरसुकून नहीं होती कभी इसके उलट भी होता है। कभी अपने हिस्से की रोटियाँ बांटकर भी भूख मिट जाती है, हमेशा लज़ीज़ खाना ही खुशी नहीं देता। मुझे नहीं पता कि तीन मई को क्या होने वाला है पर ये ज़रूर पता है कि इसके बाद वापस हमारे अंदर की इंसानियत को मरना इतना आसान नहीं होगा। कभी कभी बुरा वक़्त हमें ज्यादा इंसान बनाकर छोड़ता है ! ऊपरवाला हम सबको थोड़ा और दिल थोड़ा और सुकून बख्शे इसी दुआ के साथ आमीन!