युवा
युवा
जो ज्ञान हम phd में जाकर अपने दिमाग में upload करने वाले हैं वो ज्ञान पहले से अब गूगल पर upload हैं।
फिर भला वहाँ तक पहुँचने में अपने उम्र को घटाने का क्या फायदा, क्या मेरे वहाँ पहुँचने तक समय रुकी रहेगी? बिल्कुल नहीं,
मैं phd या पढ़ई को गलत नहीं कह रहा,
ये बातें बस यह समझने के लिए लिख रहा हु कि क्या एक युवा होनें के नाते हमें केवल अपने बारे में ही सोचना चाहिए? क्या इसी को युवा कहते हैं जो लगातार अपने लिए अपनी सफलता की सीढ़ी चढ़ते जाए?
स्कूल से निकलकर कॉलेज, कॉलेज के बाद यूनिवर्सिटी उसके बाद नौकरी और फिर अंत में सुकून से बिस्तर पर लेटा हुआ मर सके, क्या इतना सबकुछ प्राप्त करने को ही सफलता या कामयाबी कहते हैं?
मुझे लगता हैं आज का युवा अधिक परेशान या असफल इसलिए हैं क्यकी वो किसी और इंसान द्वारा प्राप्त वस्तु, साधन को देख अपने लिए भी उसे महसूस कर उसे पाने के लिए कार्य, मेहनत करते जाते हैं,,
लेकिन जब उन चीजों को प्राप्त कर लेते हैं फिर एक से दो दिन, सफ्ताह या साल भर खुश रहने के बाद उससे भी अधिक पाने कि अपनी इच्छा को जन्म दे दुःखी रहने लगते हैं।
अधिकांश युवा के मुख से हम महात्मा बुद्ध, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गाँधी, भगत सिंह इत्यादि नामों को सुनते हैं जिनसे वो खुद को प्रभावित बतलाते हैं।
लेकिन शायद उन्हें खुद पता नहीं होता कि वे उनसे सच में प्रभावित हैं या सिर्फ उनके संघर्षो का आनंद ले उन्हें पसंद करते हैं जैसे किसी फिल्म को देखने के बाद हम किसी हीरो को पसंद करने लगते हैं।
बच्चा चॉकलेट पाकर , बिजनेस मैन लाभ से , विधार्थी अंक को पाकर जैसे खुश होते हैं,
इन महापुरुषो ने अपने त्याग और समाज़ में अच्छा बदलाव को अपना लक्ष्य, खुशी बनाया,
उन्होंने मात्र अपने जीवन जीने के लिए उस कार्य को नहीं चुना जहाँ वो कुछ दिनों के लिए खुश रह सकते थे, उन्हें बहुत आराम मिलता, अधिक वस्तु,साधन का उपयोग कर पाते।
बल्कि उन कार्यो को किया जहाँ वो पल पल समाज़ के ताने, कठिनाई, और खुद को पागल कहे जाने के बाद भी आनंद महसूस करते थे।
किसी नए खोज का कमतर दिमाग वाले या बुद्धि से कोई संबंध नहींं।
मान लीजिये आज पूरी दुनिया अपने तर्क से मोहित होकर, मोह-माया में पड़कर उस ज्ञान को भुला चुकी हैं जिसके लिए वो आज राम, बुद्ध, विवेकानंद को याद किये उन्हें पूजती हैं।
लेकिन सौभाग्य से अभी भी मुझे उस अध्यात्मिक ज्ञान का पता हैं, मैं उसे महसूस करता हु, उस छेत्र में आगे बढ़कर जन कल्याण के लिए कार्य करना चाहता हु, उन्हें कुछ देना चाहता हु, अपनी साधना के पूर्णता के लिए मुझे परिवार को त्यागना पड़ सकता हैं जिसके बिना शायद अध्यात्मिक दुनिया में मेरा पर्वेश नहींं हो सकता, इससे समाज़ मुझे एवं मेरे परिवारो को बुरा भला कहेगी, मुझे पागल कह मुझ पर कंकड़ फेकेगी, मुझे उस साधन कि प्राप्ति नहीं रहेगी जिस साधन के साथ वर्तमान में मैं आराम महसूस कर जिंदगी जिये जा रहा,
क्या बस इन बातों को सोचकर डर के रुके रहना उचित हैं, जहाँ मुझे पता हैं लाख कठिनाईयो से मेरा सामना होने वाला हैं।
फिर भी मुझे इन बातों से शिकायत नहीं आनंद हैं।
यदि संयासी होने से या विश्व का कल्याण सोचने से कोई आपको पागल समझते हैं तो समझने दीजिये क्यकी उनकी आँखे तन के बाहरी पागल को देख रही आंत्रिक आनंदित पागल को नहीं।
एक युवा या मानव शरीर को धारण किये होने के नाते आप अपने आँखों को खोल खुद से देखने कि कोशिस करे फिर आपको यूनिवर्सिटी नहींं यूनिवर्स
(UNIVERSITY नहीं UNIVERSE) दिखेगा, कैरियर या जिंदा रहने के लिए आपको केवल नौकरी, रोजगार का सहारा नहीं बल्कि आंत्रिक रूप से आनंदित खुश रहने के लिए नई राह का पथ मिलेगा।