यशस्वी (3) ...
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अगले जी दिन से यशस्वी ने परामर्श अनुरूप क्रियान्वयन आरंभ किया था। यद्यपि इंजीनियर बनने के सपने को साकार रूप देना छोड़कर, टेलरिंग का उपेक्षित सा व्यवसाय अपनाना, यशस्वी के लिए अत्यंत कटु लगने वाला अनुभव था। लेकिन कड़वा काढ़ा, लाभकारी होने वाला हो तो मनुष्य पीता है। आदत हो जाए तो उसे, कड़वाहट भी बुरी लगनी बंद हो जाती है।यशस्वी के पापा को भी पहले, यह अच्छा नहीं लगा था। वह अपनी बुध्दिमान बेटी को इंजीनियर बनता देख और परिवार के लिए उसकी अभूतपूर्व उपलब्धि का, गौरव अनुभव करना चाहते थे। मनुष्य के जीवन में मगर, बुरे दिन, उसके अभाव से समझौता करवा देते हैं। दुकान पर यशस्वी के होने से उनकी आय, धीरे धीरे बढ़ने लगी थी। कुशाग्र बुध्दिधारी यशस्वी, शीघ्र ही मेजरमेंट एवं डिज़ाइन अनुरूप कपड़े की कटिंग करना सीख गई थी। जिसे दो सहायक सिल दिया करते थे।
पापा को यशस्वी के दुकान पर होने से, अस्वस्थता अधिक लगने पर, घर आकर विश्राम का समय अधिक मिलने लगा था। यशस्वी की माँ अवश्य, ऐसे समय में युवा बेटी के, पापा के बिना दुकान पर होने से, घबराया करती थीं। तब अपने सहायकों के होने का हवाला देकर, पापा उन्हें दिलासा दिया करते थे।
यशस्वी का दुकान मालिक तरह के होने से, दुकान पर लेडीज काम बढ़ने लगा था। जिससे दो माह में ही अच्छी कमाई होने लगी थी। दुकान पर एक लेडीज सिलाई सहायिका और रख ली गई थी। ऐसे, यशस्वी ने रुपयों की आवक बढ़ते देखी तो उसके अवसाद दूर हो गये थे।
इधर ज्यों ज्यों यशस्वी दुकान/टेलरिंग के कार्य में पारंगत होने लगी त्यों त्यों उसके पापा के, स्वास्थ्य में गिरावट बढ़ती जा रही थी।
साप्ताहिक दुकान बंद वाले एक दिन जब यशस्वी, पापा की अस्पताल में जाँच करा लौट रही थी। तब पापा ने अपने ग्लानि बोध से यशस्वी को बताया कि -
यशी, जो मैं सब भुगत रहा हूँ मेरे ही, पाप का फल है। तुम्हारी माँ नहीं चाहती थी तब भी, तुम्हारे होने के बाद, भ्रूण परीक्षण करवा कर, मैंने दो बार उसके गर्भ गिरवाये थे। अपने लिए पुत्र होने के जूनून में शायद मैं, यह और करता रहता मगर बाद में, तुम्हारी दो बहनों के गर्भ में आने के समय तक भ्रूण परीक्षण पर कड़े क़ानून के डर हो जाने से, डॉक्टर ने जेंडर, बताने से इंकार कर दिया था।
ऐसे दो संतान की हत्या एवं बेटे के लालसा में, तीसरी भी पैदा करके मैंने परिवार बड़ा कर लिया। आज यही मेरे ख़राब किये कर्म, मेरे ग्लानि बोध तथा चिंता के कारण हैं। ऐसी अस्वस्थता में, मैं अपने बुरे हश्र की कल्पना से घबराया रहता हूँ। मुझे लगता है मेरे बाद तीन युवा हो रही बेटियों की चिंता कर तुम्हारी माँ, चिंताओं में कितना ही ना घुटा करेगी। ये तो अच्छा हुआ है कि तुमने मेरी स्थिति समझते हुए अपनी उच्च शिक्षा की महत्वकाँक्षा त्याग कर एक बेटे से बढ़कर, जिम्मेदार और समझदार होने का परिचय दिया है।
दोनों, फिर घर पहुँच गए थे। पापा के इस खुलासे ने, उनका मन तो हल्का कर दिया था, मगर यशस्वी को घर में ही बड़ी बुराई की अनुभूति कराई थी। घर का यह राज, यशस्वी ने, एक दोपहर प्रिया को आ सुनाया था।
वह पहला दिन था जब सिलाई और शॉप में दक्ष होने के बाद यशस्वी ने, फैशन डिजाइनिंग का ज्ञान प्राप्त करने, प्रिया के पास आना शुरू किया था।
यशस्वी ने, प्रिया को बताया था कि पापा की, अस्वस्थता बढ़ गई है। अब दुकान पर मैं, उन्हें दोपहर के दो घंटे ही बुला रहीं हूँ। जिसमें, मैं आपके पास एक घंटे नियमित आ सकूँ।प्रिया ने उसके जल्दी ही सिलाई में दक्ष हो जाने एवं ऐसे डिजाइनिंग के लिए आने पर प्रसन्नता जताई थी।
यशस्वी ने तब कहा - "मेम, मैं अपने हृदय पर रखा एक बोझ भी आज, आपसे शेयर करना चाहती हूँ।"
प्रिया ने कहा - "क्यों नहीं! बिलकुल कहो।"
तब यशस्वी ने बताया - "मेम, मैंने कहीं पढ़ा है कि हमारे देश में, 1000 पुरुष पर नारी 924 हैं। मेरे पापा की तरह सोच वाले लोग, बेटियों को गर्भ में मार कर यूँ यह अनुपात, डरवाने स्तर पर ला रहे हैं। हमारे देश की जनसँख्या और उसमें वृध्दि दर भी विस्फोटक स्तर पर है। इसमें भी मुझे मेरे पापा जैसे पुत्र मोह का होना, कारण लगता है। हमारे लोग, समझ नहीं रहे हैं। स्कूल कॉलेज में सीट्स नहीं है। सरकार और शैक्षणिक संस्थायें, किशोरवय छात्र-छात्राओं की बड़ी सँख्या को शिक्षा के लिए, अपनी संस्थाओं में प्रवेश देने की स्थिति में नहीं हैं। हमारे लोगों में राष्ट्र हितों के लिए उनके कर्तव्यों के प्रति कभी चेतना आएगी भी या नहीं ? "
प्रिया ने उत्तर दिया - "जब तुम जैसे नई पीढ़ी के युवाओं में यह तार्किक सोच उठने लगी है तो मुझे आशा है कि देश में, ना केवल जनसँख्या वृध्दि पर रोक लगेगी अपितु यह अनुपात भी सुधर सकेगा। "
तब, यशस्वी ने प्रिया को अपने अगले प्रश्न से अचंभित कर दिया उसने पूछा -
"स्वतंत्रता के बाद हमारे समाज ने जिम्मेदारी का परिचय नहीं दिया लगता है। नारी शोषण, नारी अपमान, दहेज हत्या एवं नारी पर दुराचार के रिवाज से, लोगों को बेटी के माँ-पिता होने से भय लगने लगा। तब किसी स्वस्थ दिमाग से इनका अपेक्षित समाधान तो यह होता कि समाज से, ये ख़राब चलन मिटाये जाते मगर ऐसा ना करते हुए यहाँ, इसके स्थान पर अस्वस्थ दिमाग ने, बेटी को गर्भ में या जन्मने पर मारना शुरू कर दिया। क्या इसे, हमारा पढ़े लिखा होना या सभ्य होना कहा जा सकता है?"
प्रिया इस तार्किक प्रश्न को तैयार नहीं थी, लेकिन यशस्वी के सामने अनुत्तरित रह जाने के स्थान पर उसने कहा -
"यशस्वी, कभी कभी हम ठोकर खाकर गिरने से सबक लेते हैं। यद्यपि यह बुध्दिमत्ता तो नहीं होती लेकिन तब भी आगे के लिए सुधार की आशा जगाती है। तुम जैसी बेटियाँ -बेटे, अब जागरूक होते दिखने से, मुझे आशा है स्वतंत्रता के बाद से, जिस जागृति एवं न्याय की भारत वासियों से अपेक्षा थी, वह सत्तर वर्ष विलंब से ही सही, सुनिश्चित की जा सकेगी।"
फिर प्रिया ने यशस्वी को और कठिन प्रश्न करने के अवसर देने की जगह, उसे डिजाइनिंग की चर्चा में लगा दिया था।प्रिया ने बाद रात्रि में, मुझे यशस्वी से हुईं सारी बातों को अक्षरशः बताया था।मुझे फिर, गौरव हुआ कि जो बेटी, मेरे निमित्त अकाल मारे जाने से बची थी, वह साधारण नहीं अपितु राष्ट्रीय गौरव बन सकने की योग्यता रखती है।ऐसी प्रतिभाशाली एक बेटी के ज्ञान लाभ देने में, प्रिया को अत्यंत प्रसन्नता होती रही। ऐसे, यशस्वी नियमित और पूर्ण निष्ठा से, कुछ माह तक प्रिया के पास आती रही। यशस्वी से प्रथम भेंट के लगभग डेढ़ साल बाद, मेरा स्थानांतरण दूसरे शहर के लिए हो गया। यहाँ से जाने के पहले, मैंने, मेरे प्रति निष्ठावान रही एक पुलिस निरीक्षक, रिया से यशस्वी का परिचय कराया। यशस्वी के पीछे, रिया से यह कहा कि तुम, यशस्वी का ध्यान ऐसे रखना जैसे कि यशस्वी मेरी बेटी है। फिर, हम इस शहर से शिफ्ट हुए।
हमारा ईश्वर मगर, कुंदन की परख कसौटी पर बार बार घिस कर करता है।
ईश्वर के ऐसे ही स्वभाव के कारण, यशस्वी के सामने आगे और भी चुनौतियाँ खड़ी होने के लिए, प्रतीक्षा कर रहीं थीं ..