यह वक्त कितना अजीब है
यह वक्त कितना अजीब है
मैंने बारहवीं पास कर ली थी; फस्ट डिवीजन से। अब सोचना था कि आगे को क्या किया जाये। बारहवीं में मेरी विज्ञान थी और मैं विज्ञान में हमेशा से कमजोर था। मेरे पापा चाहते थे कि मैं बारहवीं विज्ञान से पास करु और मैंने वैसे ही किया। मुझे आज भी याद है, जब मैंने दसवीं थर्ड डिवीजन से पास करी थी और पापा ने मुझसे कहा था,
"कोई बात नी, इगारवी में साइंस लेना।"
"मैं नव्वी से ही गणित नहीं लेना चाहता था।"
"कोई बात नहीं, बायोलोजी ले लेना।"
"मुझे फिजिक्स बी पंसद नहीं।"
"तो क्या लेगा ?"
"आर्टस।"
"देख बेटा! जो साइंस से पढ़ता हैं, उनका नाम होता है। उनको नौकरी भी जिल्दी मिल जाती है। तेरे भलाई के लिए ही कह रहा हूँ।"
"अगर मैं साइंस लूंगा, तो फेल हो जाऊंगा।"
"तेरी इच्छा! मैं तो तेरे भले के लिए कह रहा हूँ।" उन्होंने बहुत निराश होकर मुझसे ये बात कहीं थी। मैं भी उदास था। वो मेरे मन को नहीं समझ रहे थे। मैंने ग्यारहवी में साइंस ले ली थी। मुझे साइंस पढ़ना बिल्कुल भी पसंद नहीं था। फिर भी मैंने रट-रट कर बारहवीं फस्ट डिवीजन से पास कर ली थी।
बारहवीं पास कर लेने के बाद सबसे बड़ी समस्या मेरे सामने ये थी कि अब आगे क्या किया जाये। मेरा एक दोस्त था, था नहीं; अभी भी है। पर उससे अब उतनी बातें नहीं होती जितनी स्कूल और कॉलेज के दिनों में होती थी। उसकी भी साइंस ही थी और वो भी बारहवीं में फस्ट डिवीजन से ही पास हुआ था। वो भी परेशान था कि अब आगे क्या किया जाये और उसने ही मुझे सुझाव दिया था,
"भाई बीएससी कर लेते हैं।"
"नहीं भाई मैं और साइंस नहीं पढ़ सकता।"
"तो बीए कर लेते हैं।"
"बीए!"
"हाँ।"
"ऐसा करते हैं, बीकॉम कर लेते हैं।"
"बीकॉम!"
"हाँ।"
"ठीक है फिर कल फॉरम भरने चलते हैं अल्मोड़ा।"
"ठीक है।" हम दोनों ने बीकॉम करने का सोच लिया था। हमें ये तक मालूम ना था कि बीकॉम में क्या पढ़ाया जाता है। पर मुझे इतना मालूम था कि मेरी बुआ का सबसे बड़ा बेटा बीकॉम करके बैंक में नौकरी कर रहा था।
मैं एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से तालुक रखता हूँ। मेरे बाजू(पिता) एक किराने की दुकान चलाते है और साथ ही साथ खेती बाड़ी का भी काम करते है। यू कहूं तो वो एक किसान भी है। मेरी ईजा(माताजी) एक ग्रहणी है। वो अक्सर घर के काम, खेतों के काम ही किया करती हैं और अक्सर कम ही बोलती है। घर में और अम्मा(दादी), बूबू(दादा) हैं।
अगर आप गाँव के रहने वाले लोग ना हो तो ये बात आप को थोड़ी अजीब लगेगी। पहले तो गाँव में लड़कियां उतना पढ़ती लिखती नहीं है। अगर लड़की बारहवीं तक पढ़ भी लेगी तो उसके बारहवीं पास कर लेने के फौरन बाद ही उसकी शादी कर दी जाती हैं। उन्हें लगता हैं, अगर लड़कियों का ज्यादा पढ़ा-लिखा लिया तो उन्हें पर(पंख) लग जाते हैं और फिर वह वहां में उड़ने(यहां उड़ने से मतलब हैं अपने विचारों से जीती हैं) लगती हैं। ठीक ऐसा मेरी दोनों बड़ी बहनों के साथ हुआ। पर अब वक्त बदल रहा हैं। और लड़को के साथ तो कुछ और ही समस्या हैं। जो मेरे सामने आई। मेरे पापा का पहला सवाल बारहवीं पास कर लेने के बाद यह था,
"तो अब क्या सोचा है, आगे क्या करना है ?"
"बीकॉम।"
"बीकॉम! इससे अछा तो बीएससी करले।"
"नहीं, बीकॉम करुंगा।"
"ठीक है, जैसा करता है, मैं तो तेरे भले के लिए कह रहा हूँ। सिर्फ पढ़ाई-लिखाई ही सब कुछ नहीं होती। अब कुछ नौकरी वगैरह बी देखो सरकारी।"
"हाँ, सोचा है मैंने। फौज की भरती बी मारुंगा।" भारतीय फौज के लिए मेरे दिल में बचपन से ही जगह थी, अभी भी है।
मैं और शुभम अगले दिन अल्मोड़ा जाकर डिग्री कॉलेज में बीकॉम में एडमिशन करा आऐ थे। शुभम के पापा के पास होंडा की CD100 बाइक थी, जिससे हम अल्मोड़ा, कॉलेज में एडमिशन कराने गये थे। मैंने उस दिन पहली बार बाइक चलाना सिखा था और पहली बार रपटा भी था।
कॉलेज की पढ़ाई शुरू होने वाली थी। हम रोज अपने गाँव से कॉलेज नहीं जा सकते थे इसलिए मैंने और शुभम ने किराये का एक कमरा ले लिया था। तय ये हुआ था कि दोनों आधा-आधा किराया देंगे और घर से आधा-आधा
राशन(खाने की चीजें) लायेंगे।
हमारे कॉलेज की पढ़ाई शुरु हो चुकी थी। दिन कट रहे थे, पढ़ाई शुरुआत में कुछ समझ नहीं आ रही थी।
हम जहाँ रहते थे; एक दिन हम अपने कमरे के बाहर बरामदे में बैठकर चाय पी रहे थे। तभी मैंने सुना कि कोई मेरा नाम पुकार रहा है,
"दीपक....."
मैंने बरामदे में लगी रेलिंग से नीचे की ओर रास्ते में देखा तो एक लड़की खड़ी थी। जिसे मैं पहचान नहीं पा रहा था। उसने फिर कहा,
"आज के नोट्स हैं ?"
"नोट्स ?" मैंने दोहराया था।
"हाँ।"
फिर मुझे ध्यान आया कि ये लड़की मेरे ही क्लास में पढ़ती है और मैं उसे सूरत से पहचान गया था, पर पहचानता नहीं था।
"वो मैं आज क्लास नहीं आ पाई। गाँव से ईजा आई थी।"
मैं कमरे के अन्दर गया और कॉपी ले आया था, जिसमें नोट्स बनाये थे।
"ये लो," मैंने कॉपी उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा था, "और मैं तो तुमारा नाम बी नी जानता और तुमे तो मेरा नाम बी मालूम है।"
"मेरा नाम रश्मि है," उसने कहा था, "वो जब पहले दिन सब बच्चे एक-एक करके अपना-अपना नाम बता रहे थे उस दिन, तो तुमारा नाम याद रह गया। तुम दोनों साथ में रहते हो ?"
"हाँ, ये ही कमरा है। किराये में रहते हैं।"
"हम भी किराये में रहते हैं। हमारा कमरा भी यहीं पास पे हैं। तो मैं चलती हूँ, कल कॉलेज में ले लेना कॉपी।" और फिर वो अपने कमरे की ओर चले गयी थी। मेरी उससे वो पहली बातचीत थी। शुभम के चेहरे में एक अलग ही भाव थे कि नोट्स सिर्फ मुझसे ही क्यों मांगे गये। और मेरे मन में सवाल था कि मेरा ही नाम कैसे याद रह गया है।
नवम्बर का महीना शुरू हो चुका था। आखरी हफ्ते में कुमाऊँ के जिलों के लिए भारतीय फौज में भर्ती थी। मैं और शुभम शुरुआत से ही दौड़ की तैयारी कर रहे थे। हम दोनों ने ही भर्ती के लिए आवेदन किया था।
और वो दिन भी आ गया था; जब हम भर्ती के लिए दौड़ लगा रहे थे। मैं दौड़ में ही बाहर हो गया था। शुभम का फिजिकल पूरा हो चुका था और दूसरे दिन मेडिकल भी। उसने परीक्षा के लिए कोचिंग लगा ली थी और मैं अपने कॉलेज के पेपर दे रहा था।
जाड़ो की छुट्टियों में मैं अपने गाँव आ गया था। मैं ग्वाले(गाय चराने) गया था। तभी मेरा मोबाइल बजा। वो दौर स्मार्ट फोन वाला नहीं था। फोन में नाम शुभम का था।
"भाई रिटन में भी हो गया!" वो खुश था। मैं भी था।
"बधाई भाई को!"
"चल फिर बाद में मिलते हैं।"
"ठीक है।"
ज्यादा देर बाद करने के लिए फोन में पैसो की बहुत जरूरत होती थी।
जाड़ो की छुट्टियों पूरी होने वाली थी। मैं वापस कमरे में लौट आया था। शुभम भी आया था। अपना सामान वापस ले जाने। उसका कॉल लैटर आ गया था। अगले महीने से रानीखेत में ट्रेनिंग शुरु थी। वो जाने से पहले मुझे पार्टी देकर गया था। दूध जलेबी की पार्टी।
इतने बितते वक्त के साथ मेरा सबसे अच्छा दोस्त फौज में भर्ती हो गया था। मैं थोड़ा उदास था क्योंकि मेरा दोस्त मुझसे दूर हो गया था। पर एक बात की खुशी भी थी। रश्मि मेरी दोस्त बन गयी थी। हम अक्सर बातें किया करते थे। कभी-कभी साथ कॉलेज जाया करते, साथ में कॉलेज से वापस आया करते।
मैंने एक दिन उससे पूछा, "तुम्हें मेरा नाम कैसे याद रह गया ?"
"क्योंकि तुम मुझे पहली नजर में पसन्द आ गये।"
मुझे उसकी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था, क्योंकि मुझे खुद पर विश्वास नहीं था। पर मुझे उसकी बात अच्छी लगी।
"तो तुम मुझे पसंद करती हो ?"
"नहीं। पियार करती हूँ! क्या मैं तुम्हें अच्छी लगती हूँ ?"
"हाँ।" वो जवाब एकदम मुझे आया था। जैसे मेरे बगल से उस वक्त एक बाइक तेज रफ्तार में गुजरी थी।
"मैं आज तक बाइक में नहीं बैठी हूँ।" बाइक सच में बगल से गुजरी थी।
"जिस दिन मैं अपनी बाइक लूंगा। उस दिन तुमे बाइक में पूरा अल्मोड़ा घुमाऊंगा।" वो मुस्कुरा दी थी। वो हमारा प्यार कितने जल्दी-जल्दी बड़ रहा था। जैसे उसे कहीं की जल्दी हो।
उस प्यार को सच में जल्दी थी। हम कभी एक साथ नहीं आ पाये। मैं उसे कभी अपनी बाइक पर नहीं घूमा पाया। वो मुस्कुरा भी नहीं पायी।