जंगल
जंगल


मैं हूँ जंगल। नि:स्वार्थ जंगल।
मुझमें ना जाने कितने ही जीव-जन्तु रहते हैं। खरगोश, शेर, बाघ, लोमड़ी, हिरन, सुअर, सौल, भालू और भी ना जाने कितने जानवर मुझमें घर बनाये रहते हैं। कितने जानवरों के नाम तो मैं खुद नहीं जानता।
पिछले ही हफ़्ते एक मेरे दोस्त, जो खरगोश जाती का रहने वाला है। उसने दो नन्हे खरगोशों को जन्म दिया है। बड़े ही प्यारे बच्चे हैं।
मैं जंगल, जिसमें जानवरों का घर है। जानवरों का परिवार है। जो मेरा परिवार है। हम बड़े ही प्यार से मिल जुल कर एक साथ रहते हैं।
मैं जंगल जिसमें से ना जाने इंसान क्या-क्या अपनी जरूरतों की चीजें लेकर जाता हैं। ऐसा भी नहीं है कि, हमेशा इंसान मेरा नुकसान ही करता है।
आज-कल तो इंसान बड़ा ही जागरूक हो रहा है। पेड़ काट रहा है तो पेड़ लगा भी रहा है। पर्यावरण को बचा रहा है।
पर कुछ इंसान ना जाने इतने मूर्ख क्यों हैं। उन्हें कुछ बातें समझ में ही नहीं आती हैं।
कल कुछ इंसान आये थे जंगल में। लकड़ियाँ काट के ले गये मुझसे। उससे मुझे कोई परेशानी नहीं थी। दिक्कत तो तब हो गयी, जब वो इंसान घर को लौटते हुए मुझमें आग लगा गये।
आग लगाकर वो इंसान तो घर को चले गये। सारी परेशानी मुझे हुई। परेशानी तो नहीं कह सकता हूँ। सारा दुःख मुझे ही हुआ।
मुझमें आग अपने-आप थोड़े ही लग जाती हैं। कुछ दो-चार मुर्ख इंसान ही तो है, जो मुझमें आग लगा जाते हैं।
प्रदूषण-प्रदूषण कहते रहते हैं। और जंगल में आग लगा जाते हैं।
आग लगाकर वो इंसान तो चले गये। आग ने पूरा जंगल जला डाला।
मैंने बताया था, वो दो खरगोश के नन्हे बच्चे वो भी आग में झुलस गये।