या देवी सर्वभूतेषु !
या देवी सर्वभूतेषु !
देवताओं तथा दैत्यों की प्रकृति भिन्न होने के कारण ही उनमें प्रायः विवाद होता था। बहुधा यह विवाद इतना बढ़ जाता कि उनमें परस्पर युद्ध की स्थिति निर्मित हो जाती थी।
एक बार देवताओं तथा दैत्यों के बीच ऐसा युद्ध छिड़ा ,जो उत्तरोत्तर विनाशकारी होता गया। दोनों ही ओर से दिव्यास्त्रों का संधान होने लगा। इसमें कई तरह की मायावी विद्याओं का भी प्रयोग किया जाने लगा। कोई भी पक्ष हार मानने को तैयार न था। विध्वंसक अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोगों, धनुष के टंकारों, गदाओं की धमक व तलवारों की झंकारों से दिशायें गुंजायमान होने लगी।
युद्ध की स्थिति देखकर यह प्रतीत होने लगा था मानों प्रलय काल सन्निकट है। युद्ध में दैत्यों तथा दानवों की विजय होने पर धर्म की हानि तथा अधर्म की वृद्धि होती। देवताओं की विजय एक प्रकार से धर्म की ही विजय होती। इसी कारण भगवती जगदम्बा का वरदहस्त सद्गुणी देवताओं के शीश पर था। माता की कृपा से देव पक्ष का बल-पराक्रम निरंतर युद्ध रत रहने पर भी क्षीण नहीं हुआ और ना ही उनका तूणीर बाणों से रिक्त हुआ। फलतः दैत्यों तथा दानवों की भारी पराजय हुई।.वे स्वर्ग लोक तथा भूलोक से भागकर पाताल लोक में जाकर रहने लगे।
देवता गण अपनी जीत पर फूले नहीं समाये। जिस प्रकार से उन्होंने महा भयंकर दैत्यों तथा दानवों का लगातार सौ वर्षों तक सामना किया था, वह उनके लिए बहुत बड़ी बात थी। देवता अहंकार से भर गये। वे परस्पर वार्तालाप में अपनी शक्तियों तथा वीरता का बखान करते हुए नहीं अघाते थे।
वे यह कहते हुए थकते नहीं थे कि यह चराचर हमारे द्वारा ही संचालित है, हम देवता सृष्टि, स्थिति तथा संहार करने में समर्थ हैं, हमारे सम्मुख मूर्ख तथा तुच्छ दैत्य-दानवों की क्या बिसात है?
इस प्रकार देवता गण प्रमाद नामक रोग से ग्रसित हो गये। उन्हें परा शक्ति के प्रभाव का विस्मरण हो गया। पुत्र अपनी माँ को भले ही भूल जाये किन्तु माँ अपने संतानों तथा उनके हितों को कभी नहीं भूल सकती।
भगवती जगदम्बा को देवताओं का अहंकार करना उचित नहीं लगा। पराम्बा शक्ति ने देवताओं पर कृपा करने का निश्चय किया।
जिससे देवताओं का अहंकार दूर हो तथा वे अपने कर्तव्यों से च्युत (पतित) ना हों।
इस बार जगदम्बा यक्ष के रुप में प्रकट हुई। भगवती का यक्ष स्वरुप करोड़ों सूर्य के समान तेजस्वी, करोड़ों चंद्र के समान शीतल तथा करोड़ों बिजलियों के समान दैदिप्यमान था।
देवताओं ने इस प्रकार का अलौकिक तेज कभी नहीं देखा था। वे आश्चर्य चकित होकर परस्पर कहने लगे – अहो ! यह विचित्र प्रकाश कैसा है ? यह दिव्य कांति किसकी है ? यदि यह माया है तो कौन सी माया है तथा इसका कर्ता कौन है ? जो हम देवताओं को भी आश्चर्य चकित कर रही है ?
जब देवताओं को अद्भुत प्रकाश तथा दिव्यकांतियुक्त विग्रह का मर्म समझ में नहीं आया तब उन्होंने देवराज इंद्र से इसका पता लगाने का निवेदन किया।
देवराज इंद्र ने अग्नि देव को विचित्र प्रकाश का कारण पता करने के लिए कहा । देवराज बोले – हे अग्नि देव ! आप देवताओं के मुख कहे गये हैं। आप महा बलवान है, आपकी दहन शक्ति का सामना कोई नहीं कर सकता। हे देवश्रेष्ठ ! आप वहाँ जाकर यह पता लगायें कि वह प्रकाश पुंज किसका है तथा उसका अभिप्राय क्या है ?
देवराज इंद्र द्वारा अपनी प्रशंसा सुनकर अग्नि देव फूलकर कुप्पा हो गये। प्रशंसा बड़े-बड़ों की मति भ्रष्ट कर देती है। अहंकार से ग्रसित अग्नि देव उस परम तेजस्वी पुरुष (यक्ष) के सम्मुख जा खड़े हुए।
‘’ आप कौन हैं तथा आपकी विशेषता क्या है ?-यक्ष ने उनसे प्रश्न किया।
मैं अग्नि देव हूँ – मुझमें चराचर को जलाकर भस्म कर देने की शक्ति है अग्नि ने उत्तर दिया।
तब यक्ष ने उनके सम्मुख एक तृण (तिनका) रखते हुए कहा – हे अग्नि देव ! यदि आप सचमुच इतने शक्ति शाली हैं जैसा आप बखान कर रहे हैं तब इस तिनके को जलाकर दिखाइये। मैं मान लूंगा कि आप सचमुच शक्ति संपन्न हैं।
अभी लीजिए ! यह कौन सी बड़ी बात है – कहते हुए अग्नि देव ने तिनके पर फूँक मारा। उनके मुख से आग की लपट निकली तथा तिनके से जा टकराई। तिनका ज्यों का त्यौं रहा। वह काला भी नहीं पड़ा। यह देखकर अग्नि देव आश्चर्य चकित हो गये। अब की बार उन्होंने पहले से ज्यादा लपट तिनके पर डाली। फिर भी कुछ नहीं हुआ। धीरे- धीरे अग्नि देव ने सारा जोर लगा दिया फिर भी वह छोटा सा तिनका नहीं जला। जलना तो दूर उस पर अग्नि का तनिक भी प्रभाव नहीं हुआ।
यह देखकर अग्निदेव लज्जित हो गये। वहाँ से लौटकर देव सभा में आये तथा उन्होंने सारा वृत्तांत कह सुनाया। सभी को बहुत आश्चर्य हुआ कि अग्नि देव एक तिनके को भी नहीं जला सके
देवराज इंद्र ने इसके पश्चात वायुदेव को आदेशित करते हुए कहा – हे वायो ! आप भी कम शक्ति शाली नहीं है। आपके बिना यह जगत कुछ भी नहीं है। आप ही प्राण रुप होकर सभी प्राणियों में जीवन का संचार करते हैं।अब आप जाकर यह पता लगायें कि वह यक्ष कौन है तथा उसके यहाँ आगमन का क्या उद्देश्य है ?
देवराज की प्रशंसा से वायुदेव फूले नहीं समाये। वे भी अभिमान से अकड़ते हुए गये तथा यक्ष के सम्मुख खड़े हो गये। यक्ष ने उनसे पूछा- आप कौन हैं तथा आपकी विशेषता क्या है ?
वायुदेव ने उत्तर दिया –मै वायुदेव हूँ ! मैं बहुत शक्तिशाली हूँ। मुझसे ही संसार का सारा व्यवहार है मैं ठहर जाऊँ, तो संसार की सारी चहल-पहल भी ठहर जायेगी। चराचर को प्राणवायु मुझसे ही प्राप्त होती है।
तब यक्ष ने वही तिनका वायुदेव को दिखाया और कहा -यदि ऐसा है तो इसे उड़ाकर दिखायें।
अभी लो – वायु देव ने कहा और तिनके पर फूँक मारी। तिनका ज्यों का त्यों स्थिर पड़ा रहा। वह तिरछा भी नहीं हुआ। यह देख उन्होंने तनिक जोर से फूँका, तब भी कुछ नहीं हुआ। फिर तो वायु देव को अपनी पूरी शक्ति लगानी पड़ गयी किन्तु वह तिनका अपने स्थान से हिला भी नहीं।
वायु देव लज्जित होकर देव सभा में लौट आये। उन्होंने सारा वृत्तांत कह सुनाया। देवताओं के आश्चर्य की सीमा न रही। उन्होंने अंत में इंद्र से कहा – हे प्रभो ! आप हमारे राजा हैं। आप परम शक्ति शाली है। आप ही पता लगायें कि वह यक्ष कौन है तथा उसके यहाँ आगमन का प्रयोजन क्या है ?
देवताओं का कहा मानकर देवराज इंद्र यक्ष के पास गये। अभी वे उसके समीप पहुंचे ही थे कि उनके देखते ही देखते वह यक्ष एकाएक अंतर्ध्यान हो गया। इसी के साथ वह रहस्यमय प्रकाश भी गायब हो गया। यक्ष द्वारा वार्तालाप न करके अंतर्ध्यान हो जाने पर देवराज इंद्र लज्जित हो गये। उन्होंने सोचा :--
अहो ! वह यक्ष कौन है उसने मुझे बातचीत करने के योग्य भी नहीं समझा। अब मैं उसे कहाँ ढूँढूँ ? कैसे पता लगाऊँ कि वह कौन था ? बिना पता.लगाये मेरा देव सभा में लौटना उचित नहीं होगा !
ऐसा विचार करते हुए देवराज अपना अहंकार त्यागकर वहीं उसी स्थान पर बैठ गये। तभी आकाशवाणी हुई -हे इंद्र ! निराश मत होओ ! इस समय तुम्हें माया बीज (मंत्र) का जप करना चाहिए। इससे तुम्हें सुख की प्राप्ति होगी !
आकाशवाणी के आदेशानुसार इंद्रदेव ने भगवती पराम्बा का ध्यान करते हुए माया बीज का जप करना आरंभ किया। धीरे धीरे उनकी समाधि लग गयी।
वह चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि थी। दोपहर का समय था। जब ध्यानस्थ देवराज इंद्र के सम्मुख महान तेजपुंज से युक्त भगवती पराम्बा प्रकट हुई। उनके रुप तथा छवि के वर्णन का सामर्थ्य चराचर में किसी के पास भी नहीं था। महाशक्ति के स्वरूप का ठीक-ठीक वर्णन कौन कर सकता है ? अर्थात कोई भी नहीं।
भगवती के मुखारविंद पर करोड़ों सूर्य के समान तेज था। उनका वर्ण प्रातःकालीन सूर्य की भाँति अरुणिमा लिये हुए था। उनके दिव्य मुकुट में द्वितीया तिथि का चंद्र सुशोभित हो रहा था। उन्होंने नाना प्रकार के दिव्य वसन तथा आभूषणों को धारण किया हुआ था। भगवती पराम्बा का स्वरुप चतुर्भुजी था। उन्होंने हाथों में वर, पाश, अंकुश तथा अभयमुद्रा को धारण किया हुआ था।
भगवती का दर्शन कर देवराज इंद्र गदगद हो गये। उन्होंने भगवती को दण्डवत प्रणाम किया। उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु झरने लगे। उन्होंने माँ पराम्बा की अनेक प्रकार से स्तुति किया।
देवी ने पूछा -देवराज ! तुम किस उद्देश्य से मेरा ध्यान तथा जप कर रहे हो ? वह कहो !
माता को प्रसन्न देखकर देवराज ने उनसे कहा :- हे जगज्जननी ! हे माता ! वह यक्ष कौन था ? तथा वह किस उद्देश्य से यहाँ प्रकट हुआ था ? यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके यह मुझे बताइये !
तब दयामूर्ति माँ पराम्बा बोली- हे इंद्र ! हे पुत्र !! वह यक्ष मैं ही थी। तुम देवताओं ने एक युद्ध क्या जीता अहंकार से युक्त हो गये तथा मुझे ही भूल गये ! तुम लोगों को यह स्मरण नहीं रहा कि मेरे अभाव में तुम लोग एक तिनके का भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते ! इसी कारण तुम लोगों के कल्याण के लिए ही मैं यक्ष के रुप में प्रकट हुई थी।
हे देवराज ! मेरी ही शक्ति से संपन्न होकर ब्रम्हा सृष्टि का सृजन, करते हैं। विष्णु चराचर का पालन पोषण तथा रक्षण करते हैं तथा अंत में मेरी ही आज्ञा तथा शक्ति से शिव सृष्टि का संहार करते हैं।
हे देवराज ! सगुण तथा निर्गुण मेरे ही दो रुप हैं। मेरा निर्गुण रुप मायारहित तथा सगुण रुप माया सहित होता है। समस्त चराचर में मैं ही विद्यमान हूँ। ऊँ तथा ही ये दो मेरे बीजमंत्र हैं।
देवराज ! मेरी सत्ता परम स्वतंत्र है। मैं किसी के अधीन नहीं हूँ। मैं ही परम शक्ति शाली हूँ। अतः तुम लोग अहंकार को त्यागकर मेरे शरणागत हो जाओ ! इसी में तुम लोगों का कल्याण है।
इतना कहकर देवताओं द्वारा पूजित भगवती पराम्बा अंतर्ध्यान हो गयी।
इस प्रकार भगवती की कृपा से देवताओं को यह ज्ञात हुआ कि पराम्बा महाशक्ति की कृपा के बिना वे कुछ भी नहीं हैं। भगवती की इच्छा तथा कृपा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता है। महाशक्ति की कृपा से ही उनका नाम,यश,कीर्ति, विजय आदि है। देवताओं ने अहंकार का त्याग किया तथा भगवती की नित्य नियम से जप, ध्यान पूजा-उपासना, आराधना आदि करने लगे।
या देवि सर्वभूतेषु शक्ति रुपेणि संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नम: !