Rajesh Kumar Shrivastava

Tragedy

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Rajesh Kumar Shrivastava

Tragedy

प्यार की कीमत

प्यार की कीमत

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    सुबह का वक्त था। छोटी सी पहाड़ी नदी वेग से कल-कल नाद करती हुई मंजिल की ओर भागी जा रही थी। गुंजन नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित घाट में एक युवती कपड़े धो रही थी। उसकी दाहिने ओर बगैर धुले कपड़ों का बड़ा सा गट्ठर था। युवती का सारा ध्यान कपडे़ धोने के बजाए नदी के दक्षिणी तट पर झाड़ियों में मुँह मार रही बकरियों पर थी। वह उन बकरियों को अच्छी तरह से पहचानती थी। ‘यदि बकरियाँ यहाँ हैं तो वह भी यहीं कहीं आसपास मौजूद होगा।‘ वह धीरे से बुदबुदाई।

 वह कपड़े धोते हुए गाने लगी …

आमा के पाना डोलत नइहे।।२।।

का होगे मयारु बोलत नइहे।।२।।

(आम का पत्ता हिल नहीं रहा है, ऐसा क्या हुआ जो प्रियतम कुछ बोल नहीं रहा है)

युवती के खामोश होते ही वातावरण में पुरुष स्वर गूँज उठी उसने ददरिया का जवाब ददरिया गाकर दिया ..

‘आमा ल टोरे खाहुँच कहिके।।२।।

मोला दगा देहे गोई आहुँच कहिके।।.

(तुमने आम को खाऊँगी कहकर तोड़ा था, इसी तरह हे गोरी ! तुमने मुझे धोखा दिया,जो आने का वादा करके भी नहीं आई।)

युवती मुस्कराई ! ओह तो यह बात है इसीलिए मुँह सूजा हुआ है। उसने भी अपनी बात ‘ददरिया’ गाकर रखा। 

युवती:- करिया हे हंड़िया, उज्जर हवय भात।!२!!

कइसे मिलतेंव मैं जोड़ा, अंजोरी रहिस रात।।

(मिट्टी की काली हण़्डी में पका हुआ चावल उजला है, मेरे सरताज ! रात उजली (शुक्लपक्ष की) होने से मैं मिल नहीं पाई अर्थात मैं विवश थी)

पुरुष स्वर-एक पेड़ आमा छत्तीस पेड़ जाम।।२।।

   तोर सेती मयारु,मैं होगेंव बदनाम।।२।।

गीत में पीड़ा और शिकायत दोनों थी कहा गया (एक पेड आम है और छत्तीस पेड़ जामुन है, प्रियतमे ! मैं तुम्हारे कारण बदनाम हो चुका हूँ )

युवती- माटी के मटकी फोरे म फुटही।।२।।

   तोर-मोर पिरीत ह मरे म छुटही !!-।।

(मिट्टी की मटका फोड़ने से फूटेगा। इसी तरह मेरा-तुम्हारा प्रेम मरने पर ही छूटेगा)

युवती के ऐसा कहते ही नदी के दक्षिणी किनारे की ओर से एक छरहरे बदन वाला युवक दौड़ते हुए आया तथा युवती के बाजू में चट्टान पर बैठ हाँफने लगा। 

युवती उसकी हालत देखकर खिलखिला कर हँसने लगी। वह २१-२२ साल का गौरवर्ण का युवक था, उसका चेहरा लंबोतरा, नाक अपेक्षाकृत उठी हुई, आँखें छोटी थी। उसकी दाढ़ी तथा मूँछें नहीं थी सिर के बाल छोटे किंतु घुँघराले थे।

 युवती के खामोश होते ही आगंतुक ने उससे कहा- मंजू ! तुम रात को आई क्यों नहीं ? तुम्हें पता है मैं सारी रात यहीं इसी चट्टान पर बैठकर तुम्हारे आने की राह देखता रहा। तुम्हें इसकी क्या परवाह थी है ना ?

मंजू :- लव ! मैं जानती थी कि तुम यहीं हो, परन्तु मैं मजबूर थी। मेरा प्यार मजबूर था। आने का मौका ही नहीं था।

लव:- मंजू ! हुआ क्या था ?

मंजू:- मैं तुम्हे पहले ही बता चुकी हूँ कि मेरे घरवालों को शक हो गया है कि हम दोनों के बीच कोई चक्कर है। इसलिए माँ मुझे अपने साथ सुलाने लगी है। 

लव:- यह तो बुरा हुआ ! अब हम मिलेंगे कैसे?

मंजू:- अगर माँ और मंदाकिनी से बच गये तो मिलना भी होगा ! माँ ने उसे मुझ पर नजर रखने को कहा है।

लव:- इसीलिए वह परछाईं की तरह तुम्हारे आगे-पीछे लगी रहती है। 

मंजू:- और नहीं तो क्या ?

लव कुछ कहते-कहते ठहर गया। उसे किसी महिला की आवाज सुनाई दी। उसे खड़े होकर देखा। उसे मंजू की माँ उधर ही आती हुई दिखी जो काफी गुस्से में थी।

दाई आवत हवय (सासु माँ आ रही है)—कहकर वह भाग खड़ा हुआ। मंजू बड़ी फुर्ती से चार कपडों को पानी में भिगोने के बाद पाँचवे पर साबुन मलने लगी। इतने में उसकी माँ उसके सिर पर आ खड़ी हुई।

कोन रोगहा संग गोठियात रहे रे टूरी ? किस रोगी(गाली) से बातें कर रही थी लड़की ?

कोनो संग नहीं दाई (किसी के भी साथ नहीं माँ)

मोला सिखो झन – नीराबाई के नजर बड़ तेज हावय ! जल्दी बता ओ रोगहा लवकेश इहाँ का करत रहिस ? (मुझे मत सिखाओ ! नीराबाई की (मेरी) नजर बड़ी तेज है। जल्दी बता वह रोगी लवकेश क्या कर रहा था ?

कुछ नहीं दाई !

कस रे कुलच्छनी – तोर ददा ह अइसनहा कपड़ा धोय हावय कभू – नीराबाई कपड़े की ओर इशारा करके बोली- सुक्खा कपड़ा म साबुन रगड़बे त का फायदा होही ? (क्यों री कुलच्छनी ! तुम्हारे बाप ने कभी इस तरह कपड़ा धोया है कभी ? सूखे कपडे़ पर साबुन मलोगी तो इससे क्या लाभ होगा ?

मंजू ने देखा सचमुच वह हड़बडाहट में सूखे कपडे पर साबुन मल रही थी। उसकी माँ धुले कपडों को निचोड़ती हुई बड़बड़ाने लगी – वाह ! का जमाना आय हवय ? बीत्ता भर के टूरी अऊ बीत्ते च भर के टूरा अऊ चरित्तर देख त अढ़ाई हाथ के। नाचा, सनीमा देख- देख के बिगड़त हावयं। कभू हमू ह टूरी रहे होबो फेर का मजाल कोनो टूरा संग हँसे गोठियाये होवब त। जेन खूँटा म दाई-ददा बाँधिन चुपेकन बँधा गयेवँ। रोगही ल कब अठारा पुरय अऊ कब भँवरिया के बिदा करवं। (क्या जमाना आया है?बीत्ते भर की लड़की और बीत्ते भर का लड़का और इनका चरित्तर (कारगुजारी)अढ़ाई हाथ लम्बा अर्थात अकथनीय है। नाच,सिनेमा देख-देखकर ये बिगड़ रहे हैं। कभी हम भी लड़की रही होंगी,परन्तु क्या मजाल कि (अकेले में) किसी लड़के के साथ हँसी-बोली होऊ ? माँ-बाप ने जिस खूँटे में बाँधना चाहा चुपचाप बंध गई। कब ये रोगिणी अठारह की हो और मैं इसे विदा करूँ।

माँ देर तक यूँ ही बड़बड़ाती रही और मंजू सिर झुकाए सुनती रही।

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धनेली नामक छोटा सा खूबसूरत गाँव गुंजन नदी के उत्तरी तट पर स्थित है। मंजरी उर्फ मंजू यहाँ के सम्मानित कृषक सोहनलाल के पाँच संतानों में सबसे बड़ी है। उससे छोटी दो बहनें मंदाकिनी तथा मोहिनी और दो भाई जयप्रकाश तथा ओमप्रकाश है।

वह आठवीं कक्षा तक पढी है, हाईस्कूल वहाँ से पाँच किलोमीटर दूर धनगांव में होने से वह आगे न पढ़ सकी। वह घरेलू तथा खेती-किसानी के कामों में परिवार का सहयोग करती है।

मंजरी काफी समय से लवकेश कुमार के प्यार में गिरफ्तार है, तथा उसी के साथ गृहस्थी बसाने का सपना देख रही है।

लवकेश पड़ोसी गाँव मानपुर के दुग्ध व्यवसायी प्रेमलाल का ज्येष्ठ पुत्र है। उसकी माँ गोदावरी बाई सीधी-सादी महिला है। लवकेश से छोटी एक बहन ललिता तथा दो भाई प्रदीप और आनंद हैं।

गाँव अलग होने के बावजूद दोनों का घर पास-पास ही स्थित है। उनके गाँवों को गुंजन नदी विभाजित करती है। 

लवकेश तथा मंजरी दोनों साथ-साथ खेलकूद कर बड़े हुए थे। पड़ोसी होने से दोनों परिवारों में घनिष्ठता भी थी। गाँवों में हाट-बाजार, मेला-ठेला तथा नाचा-गम्मत का आयोजन किसी त्यौहार से कम नहीं होता। इस तरह लवकेश तथा मंजरी दोनों को एक साथ समय बिताने का भरपूर समय मिला। कुछ बड़े होने पर फिल्मों में प्रणय दृश्यों को देखते हुए वे नायक-नायिका के स्थान पर स्वयं की कल्पना करते और धीरे से हँस देते। 

जब उन्हें यह पता चला कि वे एक-दूसरे को परस्पर प्यार करने लगे हैं तब तक पीछे हटने का अवसर खत्म हो चुका था। चढ़ती हुई जवानी का प्यार दीवानगी भरा होता है। किशोरावस्था वैसे भी कल्पनालोक में विचरने का होता है। अवस्था बढ़ने के साथ-साथ मनुष्य का विचार भी क्रमशः अधिक परिपक्व होता जाता है। दोनों के माता-पिता अपने काम-धंधे में, तथा भाई बहन स्कूल या फिर खेलकूद में लगते और दोनों प्रेमी मिलकर अपना कलेजा ठंडा करते। 

लवकेश तथा मंजरी की प्रेमकहानी जल्दी ही जमाने की नजरों में खटकने लगी। इस प्रेमकहानी की खबर देर-सबेर इस परिजनों के कानों तक पहुँची। जिससे उनके हाथों के तोते उड़ गये। उन्हें सहसा विश्वास नहीं हुआ कि जिन्हें वे बच्चे समझ रहे थे वे ‘समझदार’ हो चुके हैं।

इसके बाद जैसा कि होता आया है दोनों प्रेमियों के ऊपर कई तरह की बंदिशें लगाई गयी तथा उनके ऊपर कड़ी निगाह रखी जाने लगी।

वह प्रेम जिसे बहुधा, इश्क,मोहब्बत,लव आदि नामों से जाना जाता है,किसी भी तरह का रोक-टोंक कतई बर्दाश्त नहीं करता। पाबन्दियाँ उसे और भी हठी तथा ढीठ बनाती है। मंजरी तथा लवकेश भी इसके अपवाद नहीं थे। उनकी सोच थी कि उन्हें अपने अनुसार जीने का हक तथा आजादी दोनों है। 

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चैत्र नवरात्रि का समय है। बिसौहा यादव के घर में जँवारा बोया गया है। हर साल नवरात्रि में अष्टमी तिथि को दुवसिया भगतिन पर देवी-शक्ति आती है उस समय भगतिन को तीन-चार आदमी मिलकर भी नहीं संभाल सकते। जब देवी-शक्ति आती है तब भगतिन का हुलिया बदल जाता है, उसकी आँखें लाल तथा डरावनी होती है,जानकार कहते हैं उस समय भगतिन की आँखों में आँख न मिलाओ,। देवी शक्ति सवार होते ही स्त्रियाँ भगतिन के बाल खोल देती हैं, तब वह बालों को लहराते हुए, हाथ में नीबू-सिंदूर लगे त्रिशूल को लेकर जोर-जोर से झूमती है। वह बीच-बीच में किलकारी भरती है, यह किलकारी साधारण नहीं होती। इसे सुन अच्छे-अच्छों का कलेजा दहल जाता है। जस गीत गायन मंडली माँदर (ढोलक के जैसा बाजा) तथा झाँझ-मंजीरा बजाकर देवी जस गीत गाती है,उस समय बाजे की ताल में दुवसिया भगतिन का झूमना देखने लायक होता है।

बिसौहा यादव के घर का बड़ा आँगन तथा दालानों में पैर रखने की जगह नहीं है। वातावरण में गुड़-घी तथा अगरबत्तियों के जलने की मिली जुली गंध फैली हुई है। जस गीत मंडली गा रही है – 

कलकत्ता के काली ल सुमिरौं,रतनपुर महामाई। संबलपुर समलाई ल सुमिरौं,डोगरगढ़ बमलाई।।

सतयुग म तैं सती कहाये शिवशंकर के नारी।२। त्रेता म तै सिया कहाये रामचन्द्र के नारी।२। अऊ द्वापर म तैं दुरपति कहाये पाँच पाँडव के नारी। दानव दल के नाश.करे बर..

 जसगीत के लय तथा ताल के साथ झूमती हुई दुवसिया भगतिन को दर्शनार्थी मंत्रमुग्ध हो देख रहे थे। मंजरी को छोड़कर उसका पूरा परिवार बिसौहा यादव के घर में मौजूद है। मंजू कहती है उसे देवी ताल (छत्तीसगढ़़ी जसगीत की विशेष धुन) सहन नहीं होता। इसीलिए वह घर पर रहेगी।

मंजू के कानों तक जसगीत तथा भगतिन की किलकारी पहुंच रही थी। इसके अलावा उसके कानों तक किसी कोयल की कूक भी पहुंच रही थी। जो काफी समय से बिना रुके कु-कुहू -कुहू किये जा रही थी। चैत्र मास में अमराईयों में कोयल का कूकना आम बात है। 

का हो गय ए हरजाई ला, साँस घलो नई लेवत हवय (क्या हुआ,जो ये हरजाई साँस लेने को भी नहीं ठहर रही है)

कोयल के खामोश होते ही तीसरी आवाज सुनाई दी। यह किसी के गाने की आवाज थी ::---

बाग बगीचा दिखे ल हरियर।

झुमकावाली नई दिखय,बदे हौं नरियर।।

चले आबे मयारु, चले आबे मयारु पानी भरे के बहाना चले आबे।

यह लवकेश था जो ददरिया गाकर उसे मिलने को बुला रहा था। वह भागकर दरवाजे में आई। देखी। गली में सन्नाटा पसरा हुआ था। वह एक क्षण को ठहरी फिर गुंजन नदी की ओर दौड़ पड़ी। लवकेश गा रहा था -- 

 दिन मान सुरुज अऊ चंदा उये रात।

मयारु ल बिसरगे अपन बोली बात।। चले आबे.. ..।

मोंगरा के बिरुवा रिगबिग ले फूले ओ ।

तोर मोहनी सुरतिया आँखी म झूलै ओ।। 

चले आबे मयारु, चले आबे मयारु छेरी खोजे के बहाना चले आबे।।

(बाग-बगीचा हरा है, मैने मनौती रखी है झुमकावाली अर्थात प्रियतमा का चेहरा दिखेगा तो मैं (देवता को) नारियल चढाऊँगा। हे प्रियतमे ! तुम पानी भरने के बहाने मिलने आ जाओ। प्रियतमे ! दिन में सूरज और रात के वक्त चंदा उदय होता है,मेरी प्रियतमा अपने वादों को भूल चुकी है। प्रियतमे ! तुम पानी लेने के बहाने आ जाओ। मोंगरा के पौधे मे फूल ही फूल खिले हैं, वैसे ही मेरे आँखों के आगे तुम्हारी मोहनी सूरत घूम रही है। प्रियतमे ! तुम बकरी ढूँढने के बहाने मिलने को आ जाओ !)

लवकेश आँखें बंदकर तन्मयता पूर्वक गा रहा था। उसके मुख पर विरह-वेदना स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी। उसकी आँखों का कोर गीला था। अपने प्रियतम की यह दशा देख मंजू के हृदय में हूक सी उठी। उसने झपटकर उसके हाथों को थामा बोली – लव !

मंजू तुम ?- वह गाते गाते रुका। उसे सहसा विश्वास न हुआ कि मंजू उससे मिलने आयेगी।

हाँ मैं – यह तुमने अपनी क्या हालत बना रखी है ?

मेरी हालत को छोड़ो ! मैं जिंदा हूँ किसी तरह- तुम तो अच्छी हो ना ?

हाँ बहुत अच्छी हूँ – मैं रोज हलवा-पूरी और मेवा-मिष्ठान्न खूब ठूँस-ठूँसकर खाती हूँ, रोज आनी-बानी का सिंगार करके मटमटाती हूँ, यही नहीं खूब पिक्चर देखती हूँ,और मजे करती हूँ। तुम्हें क्या लगता है -मंजरी तुम्हारे लिये बैठकर आँसू बहायेगी ?- यह कहते-कहते उसका जी भर आया और वह उसके सीने से लगकर सुबकने लगी ! 

मंजू---लवकेश तड़प उठा। उसने उसे अपने बाहुपाश में भर लिया। उसकी भी आँखें बरसने लगी। कुछ देर तक दोनों की हालत बेकाबू रही। 

कुछ लोगों की बातचीत सुनकर वे होश में आये

 वे आम रास्ते से ज्यादे दूर नहीं थे। बिसौहा यादव के घर देवी-दर्शन के लिए गये मानपुर के लोग अपने घरों को लौटने लगे थे। उधर मंजू का परिवार कभी भी घर लौट सकता था। 

मंजू ! ऐसे कैसे चलेगा ?

क्या कहूँ ? मैं खुद परेशान हूँ। आज हफ्तों बाद मिलने का मौका लगा है।

मेरा कहा मानोगी ?

क्या न मानूंगी ? मंजरी बोली- आजमा के देख लो ! कहो तो जहर-महुरा खाकर लेट जाँऊ ? कहो तो कुँए में कूद जाऊँ या फिर इसी पेड़ पर लटक जाऊँ ?

नहीं मंजरी ! हम क्यों मरें ? मरें हमारे दुश्मन – लवकेश ने उसके मुख पर हाथ रख कहा – मैं ये कह रहा था कि…

हाँ हाँ कहो – जल्दी कहो मेरे सिरताज !- कोई हमें देखे और जमाना हमारा दुश्मन हो उससे पहले कह दो जो दिल में है .. मंजरी सुनने को तैयार है।

सिर्फ सुनोगी ?

नहीं।

तो?

करुँगी।

क्या?

जो तुम कहो !

अच्छा तो सुनो – लवकेश उसके कान में अपनी बात कहने लगा। 

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पिछले दो दिनों से धनेली गाँव में खुसुर-फुसुर का दौर जारी है। पनघट में, खेत-खलिहानों में अमराईयों में, घरों में, पनवाड़ी की दुकान में सब जगह दबी दबान से एक ही चर्चा हो रही है कि सोहनलाल की लड़की मंजरी अपने यार के साथ भाग गयी है। 

मानपुर वाले प्रेमलाल का लड़का लवकेश भी गायब था। जिससे यह स्पष्ट था कि वही मंजरी को भगा ले गया है।

सोहन लाल के घर में खामोशी छाई थी। नीराबाई तथा उसके बच्चे निस्तारी (जरुरी कामों) के लिये ही घर से निकल रहे थे। नीराबाई तो जैसे घर में कैद होकर रह गयी। बेटी के यूँ भाग जाने का सदमा तथा दुख सबसे ज्यादे उसी को हुआ था। सोहन लाल तथा उसके भाई-बंधु मंजरी की तलाश गुपचुप रीति से कर रहे थे। अड़ोसियों-पड़ोसियों को उन्होंने बता रखा है कि मंजू अपने मौसी के घर मेहमानी में गयी है। अब दस बरस की मोहनी का क्या करें जिसके मुख से किसी के पूछने पर निकल गया कि मंजू, दीदी (बुआ) के घर गयी है।(छत्तीसगढ़ में कहीं-कहीं बुआ को दीदी कहकर भी संबोधित किया जाता है)

लो जी तुरंत बात का बतंगड़ बन गया। हाण्डी के मुख में ढक्कन लगाया जा सकता है,मनुष्य के मुख में कैसे लगे ?

 ‘हम कहते न थे कि यह मेहमानी का नहीं बल्कि प्रेम-व्रेम का चक्कर है।‘ 

‘अजी आज का जमाना ही खराब है भैया ! क्या बच्चे और क्या बड़े सभी के सिर पर कलजुग सवार है।‘

‘बच्चों को कायदे में रखना है तो पहले उन्हें दिन-दिनभर टी.वी.सिनेमा पिक्चर दिखाना बंद करो ! वे सनीमा देख-देखकर खुद को हीरो हीरोइन समझने लगते हैं।‘

‘हाँ भैया ! बिल्कुल सही।‘

 ‘भगवान बच्चे दें पर ऐसे न दें जो जवान होते ही पंछी की तरह फुर्र से उड़ जायें। ऐसे ही सपूतों के माँ-बाप का सपना आखिर तक सपना ही रहता है।‘ 

‘कुछ भी कहो भाई ! पर जवान हो रहे बच्चों पर कड़ी नजर न रखने का नतीजा यही होता है।‘

जितने मुँह उतनी ही बात़ें। विपत्ति काल में या जरुरत के समय सहयोगियों की अपेक्षा सलाहकारों तथा टीका-टिप्पणी करने वाल़ो की कोई कमी नहीं होती। 

मंजरी रिश्तेदारों के घर न मिली तब सोहनलाल ने थाने में लवकेश के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया कि वह उसकी नाबालिग लड़की को बहला-फुसलाकर अपने साथ भगा ले गया है।

उधर प्रेमलाल भी अपने कपूत को ढूँढ रहा था जिसकी वजह से वह बिरादरी मे मुख दिखाने लायक न रहा। 

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       उपसंहार

इस प्रेम कहानी का अंत काफी आश्चर्यजनक तथा दुखद रहा। नीराबाई को मंजरी की करतूत बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं हुई। वह निरंतर अवसाद में रहने लगी थी। इसी अवसाद ने उसकी जान ले ली। नीराबाई ने मौका मिलते आत्महत्या कर लिया। सोहनलाल के परिवार के ऊपर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा। पंद्रह वर्षीया मंदाकिनी के ऊपर एकाएक घर का पूरा भार आ गया। 

पूरे डेढ़ महीने बाद लवकेश तथा मंजरी का पता चला। दोनों औद्योगिक नगरी कोरबा में रोजी-मजदूरी करे हुए पति-पत्नी की भाँति साथ-साथ रह रहे थे।

डाक्टरी मुलाहिजा में मंजरी नाबालिग निकली। चूँकि वह नाबालिग थी इसलिए उसकी इच्छा, सहमति आदि की कोई कीमत नहीं थी। फलतः उसे उसके परिजनों को सौंप दिया गया।

दूसरी ओर लवकेश पाक्सो एक्ट, एस. सी एस.टी एक्ट, बहलाने-फुसलाने, रेप जैसे कई धाराओं का आरोपी था। कुछ धारायें गैर जमानती होने से उसे गिरफ्तार कर न्यायिक अभिरक्षा में जेल भेज दिया गया।

लवकेश के पिता का हृदय अपने पुत्र के अंधकारमय भविष्य की कल्पना कर तड़प उठा। आदमी जिस संतान को बड़े जतन व लगन से पाल-पोसकर बड़ा करता है,जिसकी खुशी तथा भलाई के लिए अपना सर्वस्व होम कर देता है। उस संतान का भविष्य अनिश्चित तथा अंधकारमय हो,यह माता-पिता के लिए असहनीय होता है।

प्रेमलाल को बेटे की करतूत से पहले ही काफी धक्का लगा था। बेटे के अनिश्चित भविष्य से वह इतना अधिक दुखी हुआ कि वह सोच-सोचकर बीमार हो गया। बीमारी भी ऐसी कि जो उसकी जान लेकर ही मानी।

तथाकथित प्यार ने मंजरी तथा लवकेश को कहीं का न रखा। एक की माँ तथा दूसरे का पिता असमय ही काल के गाल में समा गये। लवकेश जेल में अपने अंजाम की प्रतीक्षा कर रहा है और मंजरी वह तो कहीं की न रही। भगवान (कुदरत) ने नारी जाति को बनाया ही ऐसा है कि यदि उसके दामन पर भूले से भी एक दाग लग जाये तो वह सारी जिंदगी नहीं छूटता चाहे जितने भी उपाय कर लो ! वह पछताने के सिवाय और कर ही क्या सकती है।


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