Rajesh Kumar Shrivastava

Inspirational

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Rajesh Kumar Shrivastava

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वह बूढ़ी दादी !

वह बूढ़ी दादी !

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यह लगभग दस बारह वर्ष पहले की घटना है। मैं अपने चचेरे भाईयों से मिलने के लिए कवर्धा जा रहा था।  

बस में काफी भीड़ थी। दो दिन बाद हरितालिका तीज थी। बस में आम यात्रियों से अधिक संख्या बहन-बेटियों की थी, जो अपने पिता या भाई के साथ त्यौहार मनाने मायके जा रही थी। कुछ ऐसे भी यात्री थे जो अपनी बहन,बुआ या बेटी को लिवाने उनके घर जा रहे थे,। मेरे आगे वाली सीट पर एक नवयुवती अपने पिता के साथ बैठी थी, उसकी दस-ग्यारह मास की बिटिया की नजर जब भी अपने नाना के ऊपर पड़ती, वह जोरों से बुक्का फाडकर रोने लगती। नाना का चेहरा तब उसके लिए अजनबी था। वह उसके परिचित चेहरों से काफी अलग था। बच्ची की बालसुलभ क्रीडा आसपास बैठे यात्रियों का अच्छा-खासा मनोरंजन कर रही थी। जिन माँओं की गोद में शिशु थें उनके साथ भी लगभग इसी तरह की समस्यायें थी। 


भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाने वाला स्त्रीप्रधान पर्व हरितालिका छत्तीसगढ़ में ‘तीजा’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस त्यौहार को मायके में मनाने की परम्परा है। 

यही कारण था कि बस में पैर रखने की भी जगह नहीं थी। मुझे थ्री सीटर में गलियारे के पास बैठने की जगह मिली थी। पण्डरिया में उसमें कुछ और लोग सवार हुए। मेरे पास ही गलियारे में एक तेरह चौदह साल का लड़का भीड़ के बीच में इस तरह फंसा हुआ था कि वह हिलने डुलने में असमर्थ था। उसके पीछे एक बहुत बूढ़ी औरत खडी थी और भीड़ से बार-बार मनुहार कर रही थी कि वे उसके पोते का ख्याल रखें। उसे खड़े होने की जगह दे दें। 


उस बूढ़ी औरत की अवस्था यही कोई सत्तर-बहत्तर बरस की रही होगी। मैंने उससे छत्तीसगढ़़ी में पूछा – कहाँ जाबे दाई ? (कहाँ जाओगी दादी)


कँवरधा जाहूँ बेटा ! ऊहाँ मोर नतनिन बिहाये हवय। ओला लेवाय बर जावत हँवव। बपरी के अऊ कोनों न इहे। (कवर्धा जाऊँगी बेटा। वहाँ मेरी पोती ब्याही है , उसी को लिवाने जा रही हूँ, बेचारी का और कोई नहीं है)

मुझे उसकी आँखों तथा आवाज में जमाने भर की पीड़ा का अहसास हुआ। इतनी वृदधा भीड़ में पिसती हुई यात्रा करे यह मुझे अच्छा नहीं लगा। मैने उसे कहा -दाई आ इहाँ बैठ जा। (दादी यहाँ बैठ जाइये )


वह मुझे ढेरों आशीष देती हुई बैठ गयी और अपने पोते को अपनी गोद में बैठा ली। यात्रा जारी रही। मुसाफिर बस मे चढ़ते-उतरते रहे।

आगे बीस किलोमीटर बाद मेरी वाली सीट के दोनों मुसाफिरों की मंजिल आ गयी। मैं बूढ़ी दादी के बगल में बैठ गया। हमारे बीच बातचीत का सिलसिला आरंभ हुआ। बूढ़ी दादी ने अपने परिवार के संबंध में जो कुछ बताया था वह संक्षेप में इस प्रकार है।


बूढ़ी दादी का नाम फूलमनी था। वह पंडरिया के पास के छोटे से गाँव में रहती है। उसकी दो बेटियाँ तथा एक बेटा था। उसकी दोनों बेटियों अपने-अपने ससुराल में हैं। उसका बेटा नवल प्रसाद गाँव में ही खेती किसानी तथा रोजी-मजदूरी करके अपने परिवार का पालन-पोषण करता था। उसके दो बच्चे थे। बेटी नंदिनी तथा बेटा नारायण प्रसाद। 


नवल प्रसाद शराब पीता था, उसमें एक यही बुराई थी। फिर भी वह पर इतना नहीं पीता था कि नशे में धुत होकर कहीं भी पड़ा रहे और काम काज पर ध्यान न दे। वह जिम्मेदार पति, बेटा, पिता और किसान था। वैसे भी गाँव-देहात में तीज त्यौहार या खुशी के मौकों पर थोड़ी मात्रा में शराब पीना आम बात समझी जाती है। 


गाँव मे शराब की सरकारी दुकान नहीं थी। इस कारण हाथभट्ठी से तैयार शराब चोरी-छिपे अवैध रुप से बिकती थी। वह जिसके यहाँ शराब पीने जाता था, उसकी पत्नी बडी दिलफेंक किस्म की थी। उसकी परोसी शराब से ग्राहकों को नशा भले ही न हो, परन्तु उसकी शोखी तथा अदाओं के समंदर में वे अवश्य ही डूबने-उतराने लगते थे। उसका कटाक्ष देखने वालों के दिलों को चाक-चाक कर देता था। उसकी शोखी,अदायें मुस्कान ये सब उसके कारोबार का हिस्सा था। साकी खूबसूरत हो, दिलकश हो, लटके-झटके वाली हो तो पीने वालों का मजा दोबाला हो जाता है, तब उन्हें भोथरे उस्तरे से भी मूड़ा जाना महज वक्त की बात होती है। इसी वजह से अवैध शराब का धंधा करनेवाले इस काम पर (बेचने-परोसने के) बहुधा औरतों को लगाते है।


उस कुलच्छिनी के बनावटी प्रेम को नवलप्रसाद असल समझ बैठा और उसे दिल दे बैठा। इसके बाद उसका ज्यादातर समय वहीं उसके निकट बीतने लगा। कहावत है कि आग और फूस की निकटता खतरनाक होती है, जो इस मामले में सच साबित हुई। नवल प्रसाद तथा शराब विक्रेता महिला के बीच अनैतिक संबंध स्थापित हो गया।  

अच्छाई दीर्घायु तथा बुराई अल्पायु होती है। पाप अधिक दिनों तक छुपा नहीं रह सकता वह जल्दी ही उजागर हो जाता है। एक दिन उसके मर्द ने उन्हें रंगे हाथों पकड़ लिया। उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने कुल्हाड़ी उठाई और उन्हें मारने को दौड़ा। वे जैसे थे उसी हालत में प्राण बचाकर भागे। 


उसकी औरत किसी तरह अपनी जान बचाने में कामयाब हुई, परन्तु नवल प्रसाद नशे के आधिक्य की वजह से भाग नहीं सका और बीच रास्ते में अवैध संबंध से उपजे क्रोध का शिकार हो गया।


नवल की पत्नी को यह सदमा बर्दाश्त नहीं हुआ। एक ओर पति की बेवफाई का दुख तो दूसरी ओर समाज से मिले तानों-उलाहनों ने उसे तोड़कर रख दिया। वह एक दफे जो खाट पकड़ी तो दोबारा उठ नहीं पाई।


 इस तरह उसकी बूढ़ी कंधों पर पोते और पोती के लालन-पालन की जिम्मेदारी आ गयी। यह पाँच बरस पहले की बात थी। तब से वह पोता-पोती का मुख देखकर किसी तरह जी रही है।

पिछले आषाढ़ मास में उसकी पोती नंदिनी का ब्याह हुआ है। यह उसका पहला तीजा है। नारायण छोटा है, वह अकेले सफर करने के लायक नहीं हुआ है। इसीलिए वह बूढ़ी दादी अपने पोते नारायण के साथ कवर्धा जा रही थी, ताकि उसकी पोती को यह दुख ना हो कि मायके से उसे लिवाने कोई नहीं आया। 


बूढ़ी दादी की कहानी मन को द्रवित कर गयी। मैं उनकी हिम्मत तथा अदम्य इच्छा शक्ति की प्रशंसा किये बगैर रह न सका। 


अपनी दादी तथा छोटे भाई को दरवाजे पर देख नंदिनी को कितनी खुशी हुई होगी। इसकी मात्र कल्पना की जा सकती है, उसे शब्दों में बता पाना बेहद मुश्किल काम है।


जिस बेटी का मायका छूट जाता है वह तीजा-पोरा (पोला) के समय अपने मायके को याद करके कितना दुखी होती है, इसे वही भलीभाँति समझ सकती है। 


तीजा (हरितालिका) मात्र एक त्यौहार नहीं है, यह विवाहित बहिन-बेटियों का मायके से भावनात्मक तथा आत्मीय प्रगाढ़ संबंध को प्रकट करता है। यही वह विशेष पर्व है जिसमें भतीजा अपनी वृदधा बुआ को लिवाने जाता है तो केवल इसलिए कि बुआ को भाई की कमी महसूस न हो ! उसे मायका छूटने की अनुभूति ना हो !

 भगवान की पूजा प्रतिष्ठा,व्रत-अनुष्ठान कहीं भी हो सकता है उसके लिये क्या मायके और क्या सासुरे ? मुख्य चीज है अपनत्व की भावना। अपनों के होने का अहसास। यही अहसास बड़ी से बड़ी विपदाओं तथा दुखों को सहन करने की शक्ति प्रदान करता है।


वर्षों बाद, अब भी तीजा पोरा के दिनों में मुझे सफर के दौरान मिली उस बूढ़ी दादी की याद बरबस ही आ जाती है।


 


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