Yashwant Rathore

Abstract Inspirational

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Yashwant Rathore

Abstract Inspirational

वर्तमान में भारतीय समाज

वर्तमान में भारतीय समाज

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भारत हमारा देश, हमारी मातृभूमि जिसका एक स्वर्णिम इतिहास रहा हैं। जिसे विश्व गुरु भी कहा गया हैं। जिसकी शिक्षाये समस्त मानवजाति के लिए परोपकारी रही हैं। पर वर्तमान देखने पर ऐसा कुछ प्रतीत तो नही होता।

धार्मिक और जातिगत दूरियां इंसानों के दिलो में समाई हैं। कभी कभार फेसबुक पर लोग अपनी भड़ास निकाल लेते है। कुछ तो अपने समाज,जाति को महान बताने के लिए और दूसरे के समाज को गाली देने के लिए ही एक और एकाउंट बना रख लेते है।

कुछ लोग जिनके इरादे नेक नही होते या वो किसी देश ,धर्म को न मान अपनी राजनेतिक विचारधारा को ही बढ़ाना, फैलाना चाहते हैं, उनके लिए सोशल मीडिया ,बेहतरीन प्लेटफार्म, आधार हैं।

सब ने अपनी अपनी जातियों औऱ धर्म के महापुरुष चुन लिए हैं, अपनी जाति, धर्म के महापुरुष भगवान तुल्य लगते हैं और दूसरी जाति के गलत व कमजोर। आज ये स्वभाव हो गया हैं कि अपनी जाति या महापुरुष की बढ़ाई करनी हैं तो, दूसरे समाज की बुराई से ही संभव हैं। पर आश्चर्य की बात हैं कि आम इंसान इतना मूर्ख कैसे हो गया या समाज के वो ठेकेदार कौन हैं जिन्होंने उनको इतना मूर्ख बना दिया है। तब किसी राजनैतिक या किसी विशिष्ट विचारधारा को सफल बनाने का बड़ा षड्यंत्र लगता है।

कहने का अर्थ की अपने मां बापूजी का सम्मान करने के लिए, दूसरों के माताजी, पिताजी को गाली निकालने की आवश्यकता नही हैं। या अपने पुत्र को आगे बढ़ाने के लिए,संस्कार देने के लिए, दुसरो के पुत्रों की हत्या की आवश्यकता नही होती।

हमने अपनी समझ से चीजो को इतना सरल कर दिया हैं कि किसी जाति के एक व्यक्ति ने गलती की तो सारा समाज ही दोषी हो गया। इसका मतलब की अगर किसी पुरुष ने स्त्री के साथ जबरदस्ती की तो, सारा पुरुष समाज ही बलात्कारी है,किसी पुरुष में कोई गुण मिलना अब असंभव हैं।

इसलिए शांत और समझदार होने की आवश्यक्ता हैं।

आजकल मूर्खो की एक लड़ाई और चलने लगी हैं कोंन बड़े योद्धा थे; राजपूत,मराठा,सिख, जाट या कोई और।।

क्या आप इतना भी नही समझते कि जो भी महापुरुष हुवे हैं उन्होंने समय अनुसार जो सही था वो किया?

और सब अलग अलग समय पर हुवे।

जब मोहम्मद बिन कासिम, गौरी, गजनवी, खिलजी,बाबर आदि थे तो उनसे लड़ने वाले ज्यादातर उस वक़्त के राजघराने , राजपूत योद्धा व आम जनता रही।

जब औरंगजेब का समय आया तब तक सिख, मराठे, जाट योद्धा मजबूती से उबरे।

तो फिर गालियां निकाल आप कोनसी संतुष्टि लेना चाह रहे हैं?

पर क्या यह सम्मान देने योग्य नही हैं कि छोटे बड़े सब अपनी समतानुसार संघर्ष करते रहे।

कभी राजनेतिक वजह से आपस मे भी युद्ध हुवे। कभी कोई जीता तो कभी कोई हारा। राज्यों की शक्तियां भी समयानुसार घटती, बढ़ती रही । पर क्या ये साधारण सी बात नही हैं?

क्या आप जानते हैं कि आसाम,जम्मू कश्मीर,साउथ इंडिया में कौन योद्धा रहे होंगे?

आधा अधूरा अपने हित का पढ़ ,आप दूसरे को गाली निकालने के लिए ज्ञानी नही हो जाते।

जब आप इतिहास में या वर्तमान में सिर्फ गंदगी ढूंढने निकलेंगे तो आपको गंदगी मिल ही जायेगी और अगर आप गुण ढूंढने निकलेंगे तो आपका चरित्र भी खुशबू से महक उठेगा।

आपकी नियत क्या हैं ,बस उसपे निर्भर हैं।

किसी भी महापुरुष को जैसे वाल्मीकि जी, श्री राम, कृष्ण, बुध, महाराणा प्रताप,कबीर,तुलसी,सूर, गुरु गोबिंद सिंह जी, शिवाजी महाराज, तेजाजी महाराज, जाम्बोजी , पाबूजी, रामदेवजी, दुर्गादास, अम्बेडकर साहब, महात्मा गांधी ,इनको आप के सर्टिफिकेट की जरूरत नही हैं। त्यागी, बलिदानी महापुरुषों को आपके महिमामंडन और खंडन से फर्क नही पड़ता।

इन महापुरुषों का ज्ञान समस्त मानवजाति के लिए है। किसी विशेष जाती, धर्म के लिए नही।

दुनिया की कोई भी विचारधारा जिसका इरादा नेक न हो और मानवता जिसका आधार व उद्देश्य न हो ,वह कुछ सालों या सदियों तक ही जीवित रह सकती है, जब तक कि उस वक़्त की परिस्थितिया उनके पक्ष में होती है। फिर धीरे धीरे वो लुप्तप्राय हो जाती।

भारत में ही कई जातिया पनपी और वो लुप्त भी हो गयी। एक वक्त में यक्ष, गंधर्व,देव,दानव नाम की जातिया थी । उसके बाद वानर, रीछ, नाग,गज आदि जातियां थी।

कहने का अभिप्राय यह हैं की समय परिवर्तनशील हैं और उसमे परिवर्तन होते रहते हैं। पर परंपरा ,धर्म,जाती का झूठा मोह हमें पकड़ के रहता हैं और हम उसकी रक्षा के लिए मानव/मनुष्यता को ही भेंट चढ़ा देते हैं। सही ,गलत भूल अपनी जाति, धर्म के लिए सब गलत हथकंडे भी अपनाते है ,जो इंसानियत को शर्मशार करने वाले होते हैं।

वर्तमान में भी देखे तो अलग अलग विचारधारा अपने को ही सही मान, अपने को स्थापित करने के लिए,कोई भी हद पार कर सकती है। जैसे कम्युनिस्ट, डेमोक्रेसी, सोशलिज्म,कैपिटलिस्ट आदि आदि।।।

इन विचारधाराओं को स्थापित करने के लिये भी बेईमानी व खून खराबे में कोई भी कमी नही रखी गयी थी।

क्या कोई एक विचारधारा ही सर्वश्रेष्ठ हो सकती हैं, क्या सब मे कुछ अच्छा और कुछ कमियां नही हो सकती पर मोह वश, हम मानना ही नही चाहते।

हम जिसको अपना महापुरुष मानते है ,उसी की लिखी ,हर एक बात हमें सत्य लगती हैं ,हम उसे ही पढ़ना चाहते है और दूसरे की सुने बिना ही गलती निकालने मे सक्षम हो गए हैं।

किस वक़्त में, किस जरूरत अनुसार और उस समय की प्राप्त जानकारी के अनुसार ही किसी ने लिखा होगा। वर्तमान में कुछ फर्क, भेद हो सकता हैं। पर हम समझने की बजाय, लड़ना पसंद करते है।

हर आदमी अपनी जाति और धर्म को वैज्ञानिक आधार देने में लगा हुआ हैं।

कबीर जी ने कहा था कि एक आने की हंडिया भी हम ठोक बजा के लेते हैं, फिर गुरु बिना विचार किये, शंका किये बिना नही चुनना चाहिये। आप उसे पूरा जीवन अर्पित करते हैं।

Jiddhu Krishnamurti - Doubt is a precious thing।

कहने का अर्थ हैं कि, जब तक आप खुले दिमाग से अपने ही महापुरुषों के कथनों पर प्रश्न नही करोगे। दुसरो के कथनों पर विचार नही करोगे। तब तक आपकी समझ स्वतंत्र नही होगी।

भारत मे हर एक इकाई के कल्याण की,प्रगति की बात कही गयी हैं और वो प्रगति भी सिर्फ भौतिक न थी। यहाँ जिसके पास पैसा न हो वो सिर्फ कुचला या कमजोर नही माना गया। जैसे

शबरी, वाल्मीकि जी, रैदास,कबीर, तुलसी, सूरदास, मलूकदास आदि और कुछ ने तो अमीरी छोड़,गरीबी का चोला धारण कर लिया जैसे महावीर, बुद्ध, मीरा, विश्वामित्र आदि ।।

सो सब देशों में एक ही तरह की विचारधारा या धर्म ठीक नही हो सकता ,क्योंकि ये धर्म और विचारदर्शन ने जिस जगह पे जन्म लिया ,वहां की परिस्थिति ,उस वक़्त अनुसार क्या रही होगी,उसपे भी निर्भर रहा होगा।

सब मे कुछ समान अच्छाइयां है तो कुछ भिन्नता हैं। हम अच्छाइयों को छोड़ भिन्नता पे जोर दे ,अपना युद्ध जारी रखते हैं।

कुछ समानताएं जैसे।।।।

वेद कहते हैं - "एको अहं, द्वितीयो नास्ति" - मै एक हूँ, दूसरा किसी का अस्तित्व नही।

बाइबिल कहती हैं - गॉड इज वन

कुरान कहती हैं - एक अल्लाह ही सत्य हैं

नानक जी - एक ओंकार सच्चा नाम हैं और सतगुरु की कृपा से ही प्राप्त होता हैं

रामचरितमानस - ईश्वर एक है और सबके हृदय में विराजमान हैं।

भारतीय संस्कृति प्राचीनतम है, सो उसमे भी कई कुरीतियों ने वक़्त अनुसार जन्म ले लिया था। विशेष तौर पर आज से 2300 वर्ष पूर्व जब बृहद्रथ मौर्य का कत्ल कर पुष्यमित्र शुंग ने खुद को सम्राट घोषित किया,बौद्ध और हिन्दू मंदिर तुड़वाये। आमजन में संस्कृत भाषा का लोप भी शुंग साम्राज्य में ही हुआ।

पुष्यमित्र शुंग भी सम्राट अशोक की तरह महान बनना चाहता था या यूं कहें भगवान बनना चाहता था।

इसी ने सारी स्मृतिया लिखवाई, जिसमे मनुस्मृति, पारासर स्मृति ,इस प्रकार महापुरुषों का नाम इस्तेमाल कर,128 प्रकार की स्मृतियाँ लिखवाई गयी। पुराण भी पुष्यमित्र शुंग ने ही लिखवाए। पुराण का अर्थ ही होता हैं नया ज्ञान।

इन्ही स्मृतियों के नाम पे झगड़े हैं, आप पढ़ ले तो आप भी लड़ पड़े। मनु महाराज धरती के आदि में हुवे उनका मनुस्मृति से कोई लेना देना नही हो सकता।

पुष्यमित्र की वजह से ही छुआछूत , जातिवाद,विकराल रूप से भारत मे फैला। वेद कौन पढ़ सकता हैं, क्षत्रीय ही शस्त्र रखेगा ,ये सब पुष्यमित्र की ही देन थी।

ऐसा नही होता तो महाभारत काल मे द्रोणाचार्य, कर्ण, एकलव्य, शस्त्र धारण ही न कर पाते।

मूल भारतीय शास्त्र उसे माना गया हैं जो वेद व्यास जी महाराज ने लिखा हैं जैसे गीता,वेद, उपनिषद, महाभारत आदि।

इन कुरीतियों का भारतीयों महापुरुषों ने विरोध भी किया, जैसे रुणेचा के बाबा रामदेव रामसा पीर ने ,राजपुत्र होते हुवे भी, मां जगदम्बा की मूर्ति उठा के मंदिर से बाहर फेंक दी जब कुछ लोगो को अछूत मान , मन्दिर में प्रवेश नही दिया गया। माता मीरा ने महान संत रैदास से शिक्षा प्राप्त की और आमजन में ही रहकर भक्ति की। इसी में नानक साहिब, भगवान बुद्ध, गुरु गोबिंद सिंह जी, विवेकानंद, संत पीपाजी, कबीर, तुलसी, पाबूजी, जाम्बोजी, व महात्मा गांधी जैसे महापुरुषों  के कुछ नाम शामिल हैं।

ऐसे महान व्यक्तियों की एक लंबी सूची हैं जिन्होंने भेदभाव व कुरीतियों को समाज से मिटाने के लिए प्रयास किये।

पर कुछ लोगो ने अपने हित के लिए समाज मे दरार डाली रखी और समाज की कुरीतियों की मार्केटिंग कर कर के, आमजन को रोष से भर दिया। हर समाज को एक दूसरे से घृणा करना ही सिखाया।

जिसका परिणाम ये निकला कि भारत के लोगो का मनोबल ही गिर गया व कुछ भी ऐसा न रहा,जिसपे सम्पूर्ण भारतीय समाज गर्व कर सके।

आज भारत आज़ाद हुवे 70 साल से ऊपर हो गए। कोई छुआछूत अपने दिमाग मे रख सकता हैं, पर कानूनन वो जुर्म हैं। फिर भी समाज मे घृणा उतनी ही बरकरार कैसे हैं ?

या जो समाज अब मजबूत और समृद्ध हो चुका है, उसे दूसरे से बदला लेना हैं। ऐसा क्यों हैं, क्या डेमोक्रेसी में वोटबैंक ऐसे ही लुभाया जाता हैं? अगर ऐसा ही हैं, तो क्या ये लोकतंत्र की कमी नही हैं?क्या ये भारतीय समाज के लिए सही हैं?

भारत की मूल शिक्षा ,सदियों के अनुभव से जीवन में उतरी, उनमे से विशेष इस प्रकार हैं।

जैसा राजा वैसी ही प्रजा - आज संसार मे विद्यमान कोई भी राजनीतिक विचारधारा ,आदर्श रूप में नही आ सकती, जब तक इसका पालन न किया जाये।

वसुधैव कुटुम्बकम् - पूरा संसार एक परिवार हैं, सभी लोगो के साथ परिवार जैसा ही व्यवहार हो। इसको मान लिया जाए तो, एक देश अपने को बड़ा करने के लिए ,दूसरे देशों में वायरस, बीमारियां न फैलाएं।

मनुष्य की दो ही जाती होती हैं देव जैसा या दानव जैसा । जो स्वभाव अनुसार हैं। - भगवद गीता

परमात्मा जो सबके हृदय में विराजमान हैं उसको प्राप्त करने की क्रिया का संकलन ही शास्त्र हैं । - स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज ;

बाकी ज्ञान ,पुस्तके सामाजिक हैं और वक़्त अनुसार उसमें बदलाव आवश्यक हैं।

जैसा व्यवहार आप अपने साथ नही चाहते, वैसा दूसरों के साथ न करे।

आदि आदि कुछ मुख्य बाते हैं।

हम ने सामाजिक परिवेश को ही धर्म मान लिया और कुछ सामाजिक किताबो के गुलाम होकर बेठ गये।

हम इतने मूर्ख हो गए कि सर्दियों के कपड़े ,गर्मियों में भी उतारना नही चाहते।

भारतीय ज्ञान के बारे में ये भी कहा गया कि इसमे मनुष्य को बांटा गया, जैसे

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,शुद्र। पर ज्यादातर विरोध उन लोगों का हैं जिन्होंने सिर्फ सुना हैं या संस्कृत भाषा का गलत अनुवाद पढ़ा हैं।

जैसे अर्जुन के कहने पर की -हे केशव जिस कर्म को करने से आत्म साक्षात्कार होता हैं, वो क्या हैं।

कृष्ण कहते हैं - उस नियत कर्म( ध्यान की क्रिया) को, जिसे करने से आत्म साक्षात्कार होता हैं उसको वर्ण (भेद,प्रकार,गुण, रंग) के आधार पर मैने चार भागों में बांटा हैं।

पहला,  शुद्र( कलियुग, बैखरी) - इस अवस्था मे ध्यान कम लगता हैं क्योंकि प्रकर्ति का पलड़ा भारी होता हैं और ध्यान की पकड़ कम।

वैश्य ( द्वापर युग, मध्यमा) - इस अवस्था मे पाप और पुण्य भाव बराबर स्तथि में होते हैं।

क्षत्रिय ( त्रेतायुग, अपरा) - इसमे साधक में प्रकृति को काटने की, त्राण करने की क्षमता आ जाती है।

ब्राह्मण - ( सतयुग, परा) - इसमें साधक प्रकति के फंद से आज़ाद हो ,ब्रह्म के नजदीक होता हैं। इसमे सत्व की मात्रा होती है।

इसके बाद मोक्ष व कैवल्य पद हैं।

महाभारत में युधिस्ठिर ने ब्राह्मण की परिभाषा समझाई हैं,उसमें आप देख सकते हैं।

इसी तरह तुलसीदास जी को नारी और शूद्र के खिलाफ कहा जाता है।

वो नारी और शूद्र किसको मानते हैं, उसके लिए रामचरित मानस पूरी पढ़े।पर इतनी मेहनत आप करना नही चाहते, इससे आसान हैं नुक्ताचीनी करना।

कबीर ने कहा हैं - जो इस पद को अर्थ लगावे, वो पुरुष ,हम नारी।

जो प्रकृति में उलझा हैं वो नारी है और जो परमात्मा को प्राप्त कर चुका हैं वो नर या पुरुष कहलाता है। भगवान का भी एक नाम पुरुष हैं।

फिर ये जातियां ,उपजातियां क्यों थी? विज्ञान को आज जेनेटिकली रीसर्च करना हो तो क्या इंसानों को किन्ही नाम व सूची में बांधना नही पड़ेगा?

क्या ये एक्सेल शीट की तरह समाजो की डाटा शीट नही हैं। फिर भी यह विषय मे विज्ञान पर छोड़ देता हूँ। इस बारे में मेरी समझ अभी कम हैं।

कुछ लोग वाल्मीकि रामायण का उदाहरण भी देते है।

अब ये थोड़ा चर्चा और खोज का विषय हैं, क्योंकि भारतीय इतिहास में प्रथम बार शास्त्र को कागज पर उतारने का काम वेद व्यासजी ने किया था। और वाल्मीकि जी त्रेता युग मे हुवे।

दूसरा वाल्मीकि रामायण के दो भाग हैं। जिसमे पहले भाग में राम को पुरुषश्रेष्ठ माना गया। और ये रामचरितमानस से बहुत मिलता जुलता ही हैं। और पहले भाग की अंत की लिखावट में लगता हैं कि राम कथा पूर्ण हो चुकी हैं।

रामचरितमानस में भी राम जब अयोध्या से लौट आ ,राज संभालते हैं ,उतनी ही कथा हैं। सीता को धोबी के कहने पर निकाल देना जैसा कोई वाकया नही है।

वाल्मीकि रामायण के दूसरे भाग के बारे में कई लेखकों व इतिहासकारो का मत हैं कि यह एक ही लेखक की रचना नही है। आप खुद भी थोड़ा रिसर्च कर सकते हैं या दोनों को पढ़ समझ सकते हैं।

वाल्मीकि रामायण के दूसरे भाग में ही शम्बूक के बारे में बताया जाता हैं की शुद्र होकर वेद पढ़ने से राम ने उन्हें दंडित किया। ये बात गले इसलिए नही उतरती की माता सबरी भी शास्त्र ज्ञाता थी, वाल्मीकि जी स्वयं शास्त्र ज्ञाता थे, कथा अनुसार सीता उन्ही के कुटिया में रह ,भोजन पानी करती। निषादराज ने उन्ही के साथ गुरुकुल में वेद व शस्त्र शिक्षा लीऔर उससे भी बड़ा नाम जाबाला ऋषि थे जो दासी पुत्र थे व दसरथ जी के दरबार मे मंत्री थे, वो भी वेद विद्ववान थे। फिर उनके साथ राजा राम का आचरण दूसरा कैसे था।

यह सब सवाल हम पूछ नही पाते, हम डरते हैं कि किसी की भावना न आहत हो जाये, पर जो समाज मे रोष, घृणा पैदा करने का व्यापार कर रहा हैं, वो दिन रात अपनी सामग्री की मार्केटिंग करता रहता हैं।

कुछ आर्य, द्रविड़ का भी उदाहरण देते हैं। आर्य का विलोम हैं अनार्य।

भगवद गीता अनुसार आर्य वो हैं जो एक ईश्वर का उपासक हैं।

अब बताये क्या कृष्ण भी यूरोप से भारत आये थे। हां ये जरूर था कि कुछ भारतीय राजाओ का यूरोप तक साम्राज्य जरूर था, जिसे कभी आपको पढ़ाया नही गया।

द्रविड़ - जहां दो समुन्द्रों का मेल है उस जगह में रहने वाले लोगो को द्रविड़ कहा जाता हैं।

फिर ये झगड़ा प्रायोजित ठंग से किसने पैदा किया।

कुछ लोग तो महापुरुषों को गाली देकर ही अपने को बड़ा साबित करते हैं, इनमे कई हैं जो अपने को साधु कहते हैं, कुछ लेखक, मीडिया स्टार और बॉलीवुड के इंटेलेक्चुअल। राम को गाली दे ,वो अपने को राम से बड़ा करने की कोशिश करते हैं।

ऐसा नही हैं कि हमारे देश मे सब ठीक हैं या था। शिवाजी महाराज शक्ति सम्पन्न होते हुवे भी, अपने ही राजतिलक के लिए, उनको क्या क्या मुश्किलें उठानी पड़ी।पर यह मुश्किल सभी समाजो और देशों के साथ रही हैं।

अपने देश की बुराई करते वक़्त हम भूल जाते हैं की इंग्लैंड में सिर्फ 90 साल पहले तक औरत को वोट देने का अधिकार नही था। अमरीका और यूरोप में काले गोरे का कितना भेदभाव रहा हैं और कितना खून खराबा हुआ हैं। पर हमें बताया जाता हैं कि दूसरे की थाली में घी ज्यादा हैं। परिवार तंत्र न होने से कितने लोग अमरीका और यूरोप में मानसिक रोगों के शिकार हैं।

जर्मनी के कई वैज्ञानिकों की खोजो को सही होते हुवे भी खारिज कर दिया गया क्योंकि वो डार्विन की थ्योरी को गलत साबित कर रहे थी। ऐसी अथॉरिटीज ने भारत के ज्ञान के साथ क्या किया होगा। पेटेंट कर हर चीज को अपना बतानेवालो पर आप कितना भरोशा कर सकते हो।

यह भी सत्य है कि भारतीय समाज मे कुरीतियां न होती तो यह कभी गुलाम नही होता। पर इनमे सुधार की आवश्यकता हैं ,न कि समाज को आपस मे लड़ने की।

अपने घर में कचरा इक्कठा हो जाये तो आप उसे साफ करते हैं या गुस्से में आ, अपना घर छोड़ दूसरे घर मे चले जाते हैं,ये सोच कर की वहाँ कचरा नही होगा। अगले दिन फिर कचरा होगा और फिर सफाई करनी होगी। यही प्रकृति का नियम हैं। कचरा साफ करने की बजाय पालते रहेंगे तो आपके दिल दिमाग से दुर्गंध ही आयेगी।

ब्रिटिश राज ने ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, अमेरिका ,अफ्रीका के कई देशों की मूल प्रजाति का विनाश कर ,अपनी कॉलोनीज बना ली। आज ऑस्ट्रेलिया, अमरीका के मूल निवासियों का किसी को पता ही नही। यह सारे देश दूसरे इंग्लैंड बन गए। पर भारत पे 200 साल हुकूमत कर के भी यह संभव कैसे न हुआ?

7वी शताब्दी में अरब और भारतीय योद्धाओ में पहला मुकाबला हुआ, बैटल ऑफ राजस्थान , उसके बाद,400 साल तक वो भारत मे घुस क्यों नही पाये? जबकि इस बीच वो यूरोप, रुश के कई इलाके जीत चुके थे। टर्की,ईरान जैसे बड़े साम्राज्यों ने घुटने टेक दिए थे। भारत छठी शताब्दी से 18 वी शताब्दी तक भी कैसे अपनी सभ्यता को बचा पाया। यह निरंतर संघर्ष करनेवाले कौन थे?

वो कौन भारतीय राजा था, जिसका caspean सागर तक राज्य था। जिसको भारत का सिकंदर कहा गया?

राजा पोरस से लड़ने के बाद सिकंदर ,आगे क्यों नही बढ़ पाया।

टर्की में भारतीयों योद्धाओ की हज़ार साल पुरानी पेंटिंग कैसे बनी हुई है।

उज्बेकिस्तान के समरकंद में हज़ारो साल पुराना कृष्ण मंदिर क्यों मौजूद है।भारतीय राजा समरसेन का समरकन्द से क्या रिश्ता था।

राजा गज का गजनी से क्या रिश्ता हैं।

सीरिया में 1200 साल पुराना, इंडियन आर्किटेक्चर स्टाइल मोनुमेंट्स, जिसमें कमल के फूल बने हैं, जो उस इलाके में होते ही नही, कैसे मौजूद हैं?

इंडोनेशिया, लाओस, थाईलैंड, कंबोडिया में हज़ारो वर्ष पुराने भीमकाय मंदिर किसने बनवाये थे?

ईरानी, यहूदी व अन्य कईयों को भारत मे ही शरण क्यों मिल पायी? इजरायल भारतं को अपनी पितृ भूमि क्यों मानता है?

वो जस्सा सिंह अहलूवालिया कौन थे, जिन्होंने अहमद शाह अब्दाली की नाक काट डाली थी व उसको लाहौर से हटा,अफगानिस्तान तक समेट दिया ?

आपको सिर्फ वो युद्ध ही क्यों याद है जो भारतीय योद्धाओ ने हारे थे ?

महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के बाद कितने युद्ध लड़े व जीते, आपको क्यों नहीं पता ?

इतनी अलग भाषा और वेशभूषा होते हुवे भी आजतक भारत का अस्तित्व क्यों हैं ?

शिव कैलाश में हैं, टॉप नार्थ यानी कि आर्य फिर उनको पूजने वाले सबसे ज्यादा साउथ में क्यों, यानी द्रविड़ है ?

कपिल मुनि को ध्याने गंगासागर ( बंगाल)तक राजस्थानी आदमी क्यों चला जाता हैं।?

जम्मू में बैठा आदमी भी गंगा में अस्थियां विसर्जित क्यों करने आता है?

भारतीय राजाओ के जब आपस मे युद्ध होते थे ,तो युद्ध जितने वाला राजा के आम जनता पर अत्याचार के किस्से क्यों नही मिलते या ना के बराबर हैं। हम ही नही,विदेशी इतिहासकारो ने भी ऐसा नही पाया।

संगीत, नृत्य, नाटय, व्यायाम( जिम इक्विपमेंट), योग, ध्यान, ओषधी विज्ञान इन सब के प्राचीन शास्त्र हमारे पास है ,जब कि हमारे हज़ारो पुस्तकालय जला दिए गए।

शौर्य, तेज, धैर्य, दान, ईश्वरीय भाव व त्याग को भारतीय संस्कृति में इतना महत्व क्यों दिया जाता हैं?

ऐसे सेंकडो सवाल हैं जिसका जवाब ढूंढने निकलोगे तो आपको भारत की आत्मा के दर्शन होंगे।

आपको भारतीय होने पर गर्व होगा।

हर देश कभी कमजोर तो कभी मजबूत रहा है। यह उत्थान,पतन चलता ही रहता हैं। जब पतन हो तो ज्यादा मेहनत करने की आवश्यकता हैं। अपने देश के साथ खड़े रहने की आवश्यकता हैं।

जिनसे आधार व संदर्भ लिया गया

यथार्थ गीता - स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज

अमृतवाणी - स्वामी अड़गड़ानंद जी महाराज।


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