H.K. Joshi Joshi

Romance Classics Inspirational

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H.K. Joshi Joshi

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वृद्ध मन की पीर (भाग-3)

वृद्ध मन की पीर (भाग-3)

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(कर्म किसी का सज़ा और को)

प्रिय पाठक मित्रों आपनें गतांक में पढ़ा कि मास्टर रमाकान्त और उन के पड़ौसी ठाकुर राजभान सिंह की दोनों पुत्रियाँ प्रियंवदा,चन्द्रप्रभा और नियति सिंह दिल्ली यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट थीं।

वे तीनों रूम पार्टनर थीं, नियति सिंह दिल्ली की आधुनिक ता में इतना धँस गई थी कि उसनें अपनी सगी वहिंन और अपनी पड़ौस में रहनें बाली चन्द्रप्रभा को भी पीछें छोड़ दिया था,वह कॉलिज में ही नहीं , बल्कि हर समय मॉर्डन बनने की कोशिश करती।

इसी आधुनिकता के चक्कर में वह अपनीं यूनिवर्सिटी के एक लड़के से प्यार करनें लगी थी, चूँकि लड़का लड़कियों में प्यार होना एक आम सामान्य क्रिया है, उम्र के एक ऐसे पड़ाव पर हर किसी के जीवन में यह मौका जरूर आता है, पर हर कार्य, समाज केअनुसार किए जाएं तो अच्छा है। 

नियति सिंह नें अपनें वॉय फ्रेंड से जितनीं तेज़ी से दोस्ती की और उतनी तेजी से लवमैरिज भीकरली, विना माँ और पिता को बताएं,और फिर वह वहीं दिल्ली में अपनें बॉयफ्रेंड के साथ रहनें लगी।

और जब यह बात नियति सिंह के पिता ठाकुर साहब राज भानु सिंह के कानों तक पहुँची तब तक वहुत देर हो चुकी थी, यह बात धीरे धीरे पूरे गाँव में आग की तरह चुकी थी।

जिसके फलस्वरूप नियति के पिता ठाकुर साहब राज भानु सिंह अपनी बदनामी और सामाजिक प्रतिष्ठा के डर से आत्महत्या कर बैठें, चूँकि राज भानु सिंह के प्रियम्वदा और नियतीसिंह के अलाबा उनका कोई पुत्र नहीं था ,अतः उनको मुखाग्नि उनकी छोटी पुत्री प्रियंवदा सिंह नें दी।

एक छोटी सी चिनगारी ने एक हँसते खेलतें सम्पन्नशील परिवार को जलाकर राख़ कर दिया। 

और कुछ दिनों के अंतराल से ठाकुर साहब की पत्नी भी पति के वियोग और पुत्री के कुकर्मों की याद से भीतर ही भीतर घुलती हुई इस सँसार से विदा हो गई ।

माता पिता के निधन के बाद अब रह गई , अकेली नियति की छोटी वहिंन अकेली प्रियंवदा ।

वह दिल्ली से अपनीं पढ़ाई अधूरी छोड़कर अपने गाँव आगई, माता पिता के जानें के बाद प्रियम्वदा अपनें घर में सामाज में बदनामी के डर से अकेली पड़ी रहती, उसका मन भी कभी कभी करता ,कि " वह भी अपनें पिता की भाँति आत्महत्या कर इस बदनामी से छुट कारा पाजाये " ।

पर हर बार उसका दिल इस वुजदिल कार्य को करनें से रोक देता, वह अकेली अपनी इतनीं बड़ी हबेली में पड़ी रहती।

वह कभी दो तीन दिनों में खाना बनाती , कभी यूँ ही बिना खाना खाए ही, सो जाती, बस यहीं उसकी अब दिनचर्या थी।

गाँव का कोई भी अड़ोसी पड़ौसी प्रियम्वदा से औपचारिक रूप से पूँछने नहीं आता। कि " उसनें खाना खाया कि नहीं।"

बक्त गुज़रता गया, एक दिंन प्रियंवदा खाना खाने को उस टेबिल पर बैठी ही थी जिस पर पहिलें उसके पापा मम्मी और उसकी दीदी नियति सिंह और वह स्वयं हबेली के भोजनालय के हाल में बिछी टेबिल पर एक साथ खाना खाते थे। 

 तभी वाहर से किसी ने दरवाजा खटखटाया।

ना चाहतें हुए भी वह गेट की ओर चल पड़ी,

दरवाजा खोला तो, उसके सामनें उसके पड़ौसी अंकल मास्टर रमाकान्त और उनकी पत्नी लक्ष्मी खड़े थे।

 " जी अंकल ,मैं आपकी क्या सेवा कर सकतीं हूँ।"

प्रिया बेटी हम वहुत शर्मिंदा हैं,।

मास्टर साहब ने उसे देखतें हुए भावुकता से कहा।

जी अंकल मैं समझी नहीं।

बरबस प्रियंवदा के मुहँ से निकल गया, उसका चेहरा भाव शून्य था।

 " बेटी आज से तुम इस बड़े घर में अकेली ना रहकर अब हमारी बेटी चन्द्रप्रभा के साथ रहोगी ?।

" लेकिन अंकल ,मेरे साथ रहनें से तो ,आपकी और आपकी बेटी की भी बदनामी समाज में होगी इसलिय कृपया मुझें मेरे हाल पर ही रहनें दें "।

प्रियंवदा हाथ जोड़कर बोली।

बेटी, हम पहिले से ही शर्मिंदा हैं,अब तुम और हमें शर्मिंदा ना करो।

मास्टरसाहब की पत्नी ने प्रियंवदा को समझाने की कोशिश की।

आंटी, बुरा नहीं मानियेगा,अगर आप अच्छे पड़ौसी होनें का धर्म पहिले से ही निभातें तो आज मैं क्यों अनाथ होती, मेरे माँ और पिता जी असमय ही......।

प्रियंवदा का चेहरा गुस्से से लाल हो चुका था ,क्षण भर में वह फफक फफककर रो उठी। 

बेटी प्रिया हम अपने किए पर पहिले से ही लज्जित हैं, अब और यह सब जली कटी बातें कह कर हमें लज्जित ना करो।

मास्टरसाहब और उनकी पत्नी लक्ष्मी प्रियंवदा के निकट आकर उसके आँखों से निकलतें आंसुओं को पौछ ते हुए बोले।

ठीक है अंकल, पर आज यह पड़ौसी धर्म की याद आपको क्यों हो आई।

प्रियंवदा दुःखी मन से बोली।

प्रिया तुम्हारे पिता हमारे वहुत हितैषी थे, और साथ ही तुझें हमनें अपनी दोनों बेटियों की भाँति वचपन से तुझें अपनी गोद में खिलाया है,।

पर अंकल अब मेरा अंतःकरण आपकी सहानुभूति को स्वीकृति नहीं देता।

 और इसी के साथ प्रियंवदा नें पीछें मुड़कर तेजी से अपने घर का दरवाजा बंद कर दिया।

मास्टरसाहब और उनकी पत्नी को आखिर कुछ देर बाद वापिस लौटना पड़ा,।

कयोंकि उनके बार बार प्रयास के बाद पुनः हबेली का दरवाज़ा नहीं खुला।

प्रियंवदा का मन दुःखी हो चला उसकी खाना खानें की इच्छा अब मरचूकी थी, वह भारी पन से बैड पर जा लेटी, और उसी के साथ उसके अतीत की पुरानी बातों की दबी हुई चिनगारी उसके मन में पुनः सुलगती चली गई,।

 और टेविल पर पड़ा खाना ठंडा होता गया और प्रियंवदा अपनी पुरानी यादों में गुम हो चुकी थी।

जब वह पहिली बार अपने पड़ौसी अंकल की बेटी और अपनी बड़ी वहिन नियति सिंह के साथ दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने गई थी तो उसके पिता जी नें उसे और उसकी बड़ी दीदी को प्यार से समझाया था ।

" कि बेटी अब तुम दोनों बड़ी हो,और अपना अच्छा बुरा स्वयं अपनें दिमांग से निर्णय ले सकती हो, तुम अपनी ओर उठने बाली हरेक अच्छी बुरी नजर को पहिंचान सकती हो, अब तुम्हें अपनें हित अनहित को सोच कर ही ,कभी कोई निर्णय लेना है,

 " तुम्हारे पिता, उन दकियानूसी विचारों को मान्यता नहीं देता जो एक नारी को परतंत्रता की श्रृंखलाओं में जकड़ती है "।

पिताजी हम कभी कोई ऐसा कार्य नहीं करेंगें,जिस से आपकी प्रतिष्ठा को कोई आँच पहुँचे,।

यही बात उस समय नियतिसिंह उसकी बड़ी वहिन नें अपने पिता ठाकुर राजभान सिंह और माँ दुलारी देवी से कही थी।

 आज भी प्रियंवदा को यह सब याद है, किन्तु उसकी दीदी कितनी बदल चुकी थी उस दिल्ली जैसे महानगर की आधुनिकता में फंसकर,।

" जो नियति सिंह एकदम लाज से छुईमुई की तरह सिकुड़ जाती थी, वही वहिंन नें ऐसा किया.........उसे विश्वास नहीं होता, पर सत्यता तो यही थी,आखिर प्रियम्वदा कब तक नजरअंदाज करती क्योंकि नियति सिंह तेजी से बदलती जा रही थी, एक दिन तो उसनें हद करदी पिता की इज्ज़त का भी ख्याल नहीं रखा नियतीसिंह नें...........शेषांश भाग 04 में आगें।


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