वृद्ध मन की पीर
वृद्ध मन की पीर
चन्द्रप्रभा की जिज्ञासा
मास्टर रमाकांत जी जब अपनें पड़ौसी राजभानु सिंह की हबेली पर प्रियम्वदा से मिलकर उसे सांत्वना ना दे सके, तो वह दुःखित मन से अपनें घर अपनी पत्नी लक्ष्मी के साथ घर लौट आए।
घर पर उनकी छोटी बेटी चन्द्रप्रभा शान्त और लोकलाज के भय से डरी हुई बैठी थी, वह अपनें पिताऔर माताजी को अतिशीघ्र उम्मीद से पहिलें प्रियम्वदा के यहाँ से वापिस आया देखकर वह घवड़ाती हुई बोली।
पपपप पिताजी......पपप प्रिया ........घर पर नहीं थी क्या ?
...............................।
मास्टरसाहब नें अपनी बेटी चन्द्रप्रभा को कोई जबाब नहीं दिया, वह सीधे अपनें कमरें में चले गए, और उनकी धर्मपत्नी लक्ष्मी चन्द्रप्रभा के पास किचिन के नजदीक आ कर खड़ी हुई और बोलीं।
चन्द्रा बेटी चाय बना दो।
जी........ मम्मी जी।
चन्द्रा अपनी माँ के चेहरें के भावों कों ध्यान पूर्वक पढ़नें की कोशिश कर रही थी, पर उसकी माँ लक्ष्मी मन के भावों को भला कब चेहरें पर आनें देंतीं।
अतः जब चन्द्रा को विश्वाश होगया कि माँ के बिना बताए वह प्रियम्वदा की जानकारी नहीं मालूम कर सकती तो वह मन में उमड़ती जिज्ञासा रूपी शङ्का को स्वयं दबाने के प्रयास करनें लगी, किन्तु मन में तीव्र उठती उत्कण्ठा को वह सम्भाल ना सकी अतः उसनें डरतें डरतें अपनी माँ लक्ष्मी से पूँछा।
माँ क्या प्रियम्वदा आपको घर पर नहीं मिली ?
लक्ष्मी कुछ देर तक अपनीं वेटी चन्द्रप्रभा को शून्य भाव से देखती रहीं और फिर बोलीं।
मिली थी, किन्तु........।
ककककिंन्तु........क्या हुआ माँ ..........वह ठीक तो है, फिर आप उसके पास से इतनीं जल्दी .......।
बस करो चन्द्रा.......इतनीं जल्दी भी क्या है जाननें की, पहिले चाय तो पीनें दो।
लक्ष्मी नें चन्द्रप्रभा की व्याकुलता को भांपते हुए, उसे इशारे से मना किया।
चन्द्रप्रभा नें अतिशीघ्र गेस के चूल्हें पर चाय का पानी उबलने को रखा, और दस मिनट बाद वह दो कप चाय और सी एन सी के बिस्कुट ट्रे में रखकर अपनीं माँ से बोली।
माँ चाय यहीं पीएंगी, या ......।
वैठक में ले आओ , तुम्हारें पिताजी के साथ ही पिऊँगी।
कहती हुई लक्ष्मी बैठक की ओर बढ़ गई।
बैठका में मास्टर रमाकांत किसी गहरें सोचमें डूबें हुए थें। अतः पत्नी के आगमन को भी वह ना जानपाये।
सुनिए जी चन्द्राबेटी चाय लेकर आ रही है, प्लीज उसे प्रियम्वदा का व्यबहार हमलोगों के प्रति कैसा था, नहीं बताना।
क्यों नहीं बताएं कोई कारण ?
मास्टर साहब नें अपनीं पत्नी लक्ष्मी की ओर देखा।
जी वो पहिलें से ही वहुत दुःखी और चिंतित है।
देखो लक्ष्मी सच्चाई को कभी छुपाना नहीं चाँहिये।
मास्टरसाहब अपनी सैद्धान्तिक बात पर जोर देकर बोलें।
देखियेगा कभी कभी थोड़ा सा असत्य भी किसी के मन को ख़ुश करदेता है।
पर हम उस इंसान को कब तक सत्यता नहीं बताएंगें, आख़िर सत्य तो सत्य है, जो अनेकों असत्यों को पराजित कर सामनें आजायेगा।
अभी पतिपत्नी में बात चल ही रही थी कि तभी उसी समय चन्द्रप्रभा नें बैठक में कदम रखा।
आओ पुत्री चन्द्रा।
लक्ष्मी चन्द्रा की ओर मुश्कराई।
चन्द्रप्रभा निर्लिप्त भाव से चलती हुई मेज पर चाय की ट्रे रख कर एक ओर चुपचाप खड़ी होगई।
मास्टरसाहब रमाकान्त दूसरी ओर मुँह किए बैठें थे, अतः चन्द्रप्रभा नें उन्हें धीमें से पुकारा ।
पिताजी चाय ठण्डी हो जाएगी।
......................................।
रमाकान्त जी मौन रहें, उन्होंनें चन्द्रप्रभा की बात का कोई जबाब नहीं दिया।
अजी सुनतें हैं, चाय पीजिए, चन्द्रा लाई है।
हॉं ........हाँ ........सुन रहा हूँ, मेरीं अभी इच्छा नहीं है।
मास्टरसाहब सोच में डूबें हुए बोलें।
चन्द्रप्रभा शान्त स्थिर भाव से अपनें पिता को देखती रही।
बैठका में तीनों व्यक्तियों की उपस्थिति नगण्य थी, एकदम पिन साइलेंट पोजिशन थी, तीनों व्यक्ति अपनीं अपनीं भावनाओं में वह रहें थे..........शेषांश आगें।

