विश्वासघात
विश्वासघात


जब हम सेना या फ़ौज की बात करतें हैं तो हमारी आँखों के सामने वीर फ़ौजियों की वीरता के किस्से घूम जाते हैं। इन वीर फ़ौजियों के साथ ही कुछ ऐसी भी हस्तियाँ होती हैं जो नेपथ्य में रह कर देश सेवा कर के सूक्ष्म में विलीन हो जातीं है और बाद मे यहाँ धरती पर रहनें वाले हृदयहीन मतलबी लोग उनसे भी फ़ायदा उठाने में पीछे नही रहते। ऐसी ही एक हस्ती थी नाम हम उनका कुछ भी रख लेतें है क्योकि नाम से ज्यादा उनके जीवन में घटने वाली घटनाओं नें हमारे मन को समय समय पर व्यथित किया है। यूँ तो वो दोनो एक आम इंसान ही थे पर दोनो पति पत्नी मिलिट्री में थे तो हमारे लिये वो एक खास व्यक्ति थे। हम उनसे कभी मिले नहीं पर जो जाना वो एक कहानी के रूप मे पेश करने की कोशिश कर रही हूँ।
माध्वी ! चलिये माध्वी और मानव नाम ही उनका रख लेते हैं। हमारे वीर सिपाही जब युद्ध में घायल हो कर आते हैं तो सेना के अस्पताल में उनकी चिकित्सा की जाती है। मानव मिलिट्री में मेजर थे और माध्वी से उनका परिचय अस्पताल में तब हुआ जब सरहद पर घायल होने के बाद उन्हे काश्मीर के मिलिट्री के अस्पताल में इलाज के लिये कुछ समय रहना पड़ा था माध्वी महाराष्ट्रियन ब्राह्मण थी और मानव उत्तर प्रदेश के कायस्थ परिवार के कुलदीपक। ख़ैर दोनो मे प्रेम हुआ और शादी भी हुई। यह उस समय की बात है जव ये भी विरोध के मुद्दे हुआ करते थे पर कायस्थ शायद इस विषय में हमेशा से ही थोड़े खुले विचारों के रहे हैं तो मेजर साहब के परिवार वालो ने
तो विवाह को स्वीकृति दे दी और महाराष्ट्रियन कन्या को सहज रूप में बहू के रूप में अपना लिया पर कट्टर महाराष्ट्रियन परिवार ने अपनी बेटी से किनारा कर लिया। समय का चक्र घूमता रहा। उनके एक प्यारी सी बेटी हुई।
अभी वह चार साल की ही थी कि पता चला कि माध्वी को कैंसर नें अपनी जकड़ में ले लिया हैं। और वह भी आखिरी स्थिति मे हैं। अभी वो दोनो इस सदमे से उबर भी ना पाये थे कि पता चला कि मेजर साहब को भी कैंसर हो गया है। सब पता चलते चलते साल भीतर दोनो ईश्वर को प्यारे हो गये।
पूरे मान सम्मान के साथ तिरंगे मे लपेट कर उनको अन्तिम विदाई दी गयी। इस पूरे घटना क्रम में एक बात ने बहुत व्यथित किया कि जो व्यक्ति उनका हमदर्द बन कर उनकी देखभाल कर रहा था उनसे वह देखभाल के पैसे तो लेता ही था जाते समय उनका बहुत सा क़ीमती सामान भी विश्वासघात कर उनके घर से समेट कर ले गया। हाँ सेना ने एक काम अच्छा किया कि उस घर मे फिर तला लगा दिया। जिसकी चाभी बेटी को अट्ठारह साल की होने पर दी गयी। बाबा और बुआ फूफा की छत्र छाया में वो नन्ही बच्ची निश्चिन्त हो कर जीवन जीने लगी ।उन्होने उसे जीवन में सब कुछ दिया लेकिन शायद ईश्वर से उसकी ये भी खुशी देखी ना गयी। समय से पहले ही उसने बाबा बुआ और फूफा जी को अपने पास बुला लिया। शायद उसे अच्छे लोगों की ज्यादा जरूरत है। ख़ैर अब तक वो अपने पैरों पर खड़ी हो चुकी थी। आगे ईश्वर से यही मनाती हूँ कि भविष्य में उसकी झोली ईश्वर खुशियो से भरी रखे।